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इन दोनों में केवल विशेषता यही रहती है कि जो गर्भ से उत्पन्न होते हैं उनके मन होता है और जो बिना गर्भ के केवल समुर्च्छिम ( स्वयमेव ) उप्तन्न हुए हैं उनके मन नहीं होता । इसीलिये मनवालो की मना मझी और जो विना मन के हैं उनकी सज्ञा अशी इस प्रकार से व्यवहत कीगई है ।
जन इनकी उक्त प्रकार से मज्ञा होगई तन इनके स भेद भी होगए। जैसे कि पाच सज्ञी तिर्यगू और पाच अमक्षी तिर्यग फिर पाच ही पर्याप्त और पाच ही अपर्याप्त इस प्रकार सर्व भेद एकत्र करने मे २० होगए ।
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इस प्रकार उपरोक्त २२ भेट एकन्द्रियों के और ६ भेट विकलेन्द्रियों के और २० भेद पचेंद्रिय तिर्यगो के एकत्र करने सर्व भेद ४८ हो जाते हैं।
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यह सर्व व्यवहार नय के आश्रित होकर ही उक्त भेट वर्णन किये गए हैं ।
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फिर इसी नय के आश्रित होकर जल्चर जीवा के
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अनेक भेद होने पर भी सुगम बोध कराने के लिये बन्छ, मन्छ ( मत्स्य ) गाहा, मकर, और सुसमार इस प्रकार भी
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ये गए हैं।