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________________ १५८ तथा जो लोग रोगी को बलात्कार में भोजना क्रियाओं के क्राने की पेठार करते हैं वे बडी भूर करते हैं । क्योंकि उनके मनमें यह यात पसी होती है कि रोगी को कुछ सा लेने से शक्ति आजायगी परतु वे इस यात की ओर ध्यान नरी देते कि जय रोगी को शक्ति आजावेगी तो फिर क्यरोग को पत्ति नहीं आयगी अर्थात अवश्यमेय आयगी। __ अर्थात् जो रोग दस दिन म गात होता होगा यह माम भर में भी शात हो या न हो। इसलिये गेग की दशा में उपग्राम फराण अत्य रामप्रद माना गया है तथा उपवाम चिरिरतात प्रथों में उपयामादि पियाओं का पटा महात्म विपलाया गया है । बडे से यह रोग भी बहुत से रोगियों ने उपवासावि द्वारा गात किये हैं। __ अताव लेप का साराश इतनाही है कि विशेष औषधियों के वश न पहते हुए पेचर उपवासादि द्वारा ही, रोगको शात कर लेना चाहिये । जिस प्रकार स्वदेशी ओपधी हितकर है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी चेप की मी अत्यत आवश्यक्ता है क्योंकि स्वदेशी वस सपनो शुद्ध होता है और दूमरे परने म विदेशी घल की, अपेक्षा में अधिक समय पश्येत चल मला है।
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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