Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

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Page 197
________________ २ इस प्रकार हे मित्र ययं । यह प्रापर्य प्रव गुणों की सानि है। इसी में मर्य गुणों का अताप होता है। जिस प्रकार मिर के बिना घर किमी फाम का नहीं होता कि उसी प्रकार ब्रह्मचर्य प्रत के बिना शेष नियम सिर के बिना घड के समान है। इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति पो इस महामत का ययोफ विधि से सेयन करा पाहिये ।। परतु स्मृति रहे कि यह प्रन दो प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे कि एक मय पत्ति महात्माओं पा और द्वितिय गृहस्थ लोगा का सो दोना की व्याख्या निम्न प्रकारसे पढिये । जिनदास'-प्रियवर । जो आपने संर्य वृति साधू-गीरान के प्रमचर्य विषय का पर्णन किया है मैं कुछ उसपा स्वरूप मुनना पाहता है। जिनदत्ता-मिनयय्य आप इस वित होकर उक्त विषय को सुनिये जिनदास'--आर्य ! सुनताहू सुगाइये जिनदत्त -मित्रयय जय माधु पृत्ति ली जाती है तब उस समय वह मुनि मन, पचन, और काय से उक्त महाप्रत को धारण करता है-जगत मान के स्त्रीवर्ग को माता, भगिनी, या पुत्री की दृष्टि से देखता है। और सदैव काल

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