Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

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Page 203
________________ जिनदत्त-मिग्रव। जिस प्रकार लाय का पडा अमि के समीप रया हुआ पिपर जाता है तथा घृत अमि के पाम रवम्या हुआ पिघल जाता है या चमक पत्थर के निकट लोहा रक्षा हुआ यह चमक पत्थर की आर्षणता मे सींचा पला जाता है ठीक उसी प्रकार खियाँ के समर्ग मे मन पी गति विकृत भाव को शीघ्र प्राप्त हो जायगी। निममे प्रम्हचर्य प्रव में आघात पहुचो की सभावना की जा मफेगी। अतएव प्रम्हचारी पुरप पियों के समूह के साथ पेठे रहना इत्यादि मियाआ को छोड देये । पारण कि जय अल्प मत्ययाले आत्माआ पा मन स्यत ही चल रहवा है किंतु जय घे नियों का मसर्ग परगे सय तो कहना ही क्या ? जिनदास:-मित्रवर्य । अप इसे मैं ठीक समझ गया किंतु अब मुझे आप पसुर्थ नियम सुनाइये । जिनदत्त-सम्ये । आप चतुर्थ नियम को ध्यान पूर्यफ सुन । "नो इत्थीण इद्रियाणि मणोहराइ मणो रमाइ आलोइत्ता निझमाइत्ता भवइ ४' प्रम्हचारी पुरुष स्त्रियों की इद्रियो को जो

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