Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

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Page 199
________________ साथ रहन में प्रापर्य प्रत में नाना प्रकार की सफार उHA होने की ममावा की जा मकेंगी। जिनदासा-ससे जप अप मन लदो तम उक्त म्पकिया के माप रहने म क्या दोष है ! जिनदत्त-मित्रवर्य । पाहे कितना ही मन घर हो फिर भी सग अपना फल पतलाये पिना नहीं रहता । अतएव मा दोष के दूर करने के लिये उक व्यक्तिया के साथ निवाम न करना पाहिये । जैसे कि बाजार वाले पाहे कितनी श्रेष्ठ आत्मा हो फिर भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने बहुमूल्य वाले पदायों की रक्षा के लिये पेटी आदि को ताला आदि लगाने ही पड़ते हैं। इसी प्रकार भले ही मन दृढ हो फिर भी प्रमचय पी गुप्ति के लिये उक्त व्यक्तियों के माय महयास न करना चाहिये । जिनदास -मित्रवयं ' इसका कोई दृष्टात देकर समझाओ। जिनदत्त -प्रिययर । सुनिये जिस स्थान पर विद्याल का पास हो यहां पर मूशों ( चूहों ) का रहना हितकर नहीं होता तथा जिस स्थान पर सिंह का वास हो इसके निकट मृग का रहना शांति

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