Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

View full book text
Previous | Next

Page 187
________________ अतएर प्रत्येक व्याक्ति को शारीरिक वा मानसिक दशा सुधारने के लिये वा लोक आर परो सुधारने के लिये इम महानत को धारण करना चाहिये । यद्यपि ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ब्रह्म में प्रविष्ट होना है । अथात् अपने निन स्वरूप में प्रविष्ट होना है तथा कुशला नुष्ठान भी इसी का अर्थ है तयापि इस स्थान पर मैथुन से निवृत्त होकर फेवल श्रुतज्ञान में प्रविष्ठ होना लिया गया है। क्योंकि यावत्कार विषय विकारों से सर्वथा निवृत्ति नहीं की जाती तावत्काल पर्यत आत्मा अपने अभीष्ट ध्येय की और भी नहीं जा सका अतएव इस स्थान पर मैथुन के दोष और ब्रह्मचर्य के गुण जिनदाम और जिनदत्त दो मित्रों के सम्बाद रूप में लिये जाते हैं जिससे प्रयेक व्यक्ति उक्त व्रत के गुण और उक्त प्रत के न धारण करने से जो अवगुण उप्तन्न होते हैं उनको जानले। जिनदास-प्रिय मित्र मैथुन सेग्न फ्रने म क्या दोष है ? जो आप सदैव फाल इसका निषेध करते रहते है ? जिनदत्त -प्रियवर । इमके दोपों का क्या ठिकाना है ? यह तो दोषो का आगर [सान] ही है। जिनदास-यदि आप इसम अनक दोप समझते हैं तो प्रियवर । कुछ दोषा का दिग्दर्शन तो कराइये

Loading...

Page Navigation
1 ... 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210