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करता है । इमीलिये इसे प्रमाण पूषक रूपी द्रव्यों के जानने या देखने घाला अवधिज्ञात यहा जाता है।
परतु जब मन पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम हो जाता है तब आत्मा को मन पर्यय ज्ञान प्रकट हो जाता है। इस ज्ञान के द्वारा आत्मा मनोगत द्रव्यों के जानने की गति रखता है। अर्थात् मनुष्यनेनसी यावन्मान सनी (मनपारे) पचन्द्रिय जीव हैं उनके मारे जो पर्याय है उनके जानने की शक्ति इसी ज्ञान को होती है। यापि इस ज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार के दो भेद प्रतिपादन किये गए है तथापि उनका मुरय उद्देश सामा य योध था विशप घोध ही है तथा ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमीन पदार्थों के स्वरूप का विशद रूप से जानता या देसता है । थाम्ने ये चारा ही ज्ञान क्षयोपशम भाव के भावों पर ही अपलयित है । परतु जब आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्गनावरणीय, मोहनीय तथा अतराय इन चारा ही कमां को क्षय करता है तथा क्षायिक भार में प्रविष्ट होता है तय उम आत्मा को मर्य प्रत्यक्ष करलनान की प्रालि होजाती है जिससे फिर यह केयली आत्मा मव भागे को हस्तामर यत् जानने और सने लग जाता है।
परतु फेवरी भगवान् दो प्रकार से वर्णन किये गए हैं। जैसे कि एक भवस्थ (जीयन युक्त ) और दूसरे सिद्धस्थ सो