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किंतु जब आत्मा ये आठ ही कर्म भय हो जाते हैं तब आत्मा का दायिक भाव प्रकाशित हो जाता है निसके कारण से आत्मा सिद्ध गति की प्राप्ति कर रेता है।
भायोपशमिक भाव के द्वारा आत्मा में मतिज्ञान, ध्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान और मन पर्यव ज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान तथा विभगअज्ञान, इसी प्रकार दानलद्धि, लाभ न्द्धि, भोगटन्द्धि, उपभोगन्द्धि, तथा बलवीये की सब्द्धि की प्राप्ति हो जाती है। । ।
क्योंकि यावन्मान आत्मिक गुणों का प्रादुर्भूत होना है ये सन लायोपरामिक भाव व्दारा आत्मा प्रम से उन्नति के शिखर पर चढता हुआ क्षायिक भाव की सीमा तक पहुंच जाता है। ठीक उसी प्रकार पारिणामिक भाव में भव्य पारिणामिक अभव्य पारिगामिक और जीव पारिणामिक इन तीनों परिणामों में स्वभायता मे अनादि काल से परिणत हो रहा है। । अब इस स्थल पर यह सका उप्तन्न की जासक्ती है कि भव्य पारिणामिक और अभव्य पारिणामिक और जीव पारिणामिक किसे कहते हैं।
इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि अनादि काल से और स्वभाव से ही जीवों का दो प्रकार का स्वभाव प्रतिपादन किया है।