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की अपेक्षा से पारिणामिक सभाव होने से वह उक्त भावों मे परिणत होता रहताही है ।
जिस प्रकार घृत जिस वर्ण वा गधादि में प्रविष्ट होजाय फिर वह उसी वर्गादि के रूप को धारण करने वाला पन जाता है । तथा जिस प्रकार निर्मल दर्पण में जिस रंग का दोरा ( सूत ) दिखाया जाता है फिर उस दर्पण में उमी रंग का चित्र जा पडता है ।
ठीक इसी प्रकार चैतन्यद्रव्य भी कमों की संगति से जिस प्रकार के कर्मों का उदय होता है प्राय उसी प्रकार से उसमें पारणत होजाता है ।
जैसे मादक द्रव्यों के भक्षण से जीव मदयुक्त हो जाता वा जिस प्रकार मदिरादि के पान करने से जीव मून्छी में प्रविष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पारिणामिक सभावनाला होने से जीव भी जीव परिणाम में परिणत होता रहता है । यदि जीव औदयिक भाव को अपेक्षा से देखाजाय तो इस के आठ कर्मों का सदैव उत्य रहता है ।
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इसी कारण मे वह नरक, तिर्यगू, मनुष्य और देव आदि गति मे वा कपायादि में परिणत हो ही रहा है । औपशमिक भाव के द्वारा इनकी क्पाऍ ( क्रोध, मान, माया और लोभ ) और औपशमि+ सम्यक्त्व आदि गुण उत्पन्न होते रहते हैं ।
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