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तथा ऐसा कौनसा अकार्य है जो कोधी नहीं कर बैठता ! सो आत्म विचार करने के लिये प्रथम शाति धारण करनी चाहिये
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शास्त्रों में लिसा है कि " कोहो पीइप्पणासेइ" कोव प्रीति का नाश कर देता है । सो जिन २ पदार्थों पर प्रीति होती है, क्रोधी उन पदार्थों का नाश कर देता है
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सो विचारशील व्यक्तियों को योग्य है कि वे शाति द्वारा क्रोध को शात करें। जब क्रोध शांत होगया तब फिर आत्मा निवेक ओर विचार से ठीक सत्ता है ।
प्रकार के काम ले
जिस प्रकार क्रोध प्रत्येक पदार्थ के बिगाड़ने में सामर्थ्य रमता है ठीक प्रत्येक कार्य की सफलता करने में सामर्थ्य रखती है ।
नाश करने में या
उसी प्रकार क्षमा
कहा गया है कि शत्रुओं के जीतने में क्षमारूप एव महान् प्राकार [ गढ या कोट ] है जिसमें कोई शत्रु प्रविष्ठ ही नहीं हो सत्ता ।
अतएव आत्मानुप्रेक्षा के लिये प्रति अवश्य धारण करलेना चाहिये ।
४ निर्ममत्वभाव - यावतकाल पर्यंत आत्मा निर्ममत्व भाव के आश्रित नहीं होता तावत्काल पर्यंत वह मोटलीग गर्न