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मत्ता है कि जब आत्मा के आश्रय द्वारो का सवर के द्वारा निरोध किया जायगा तर नूतन कों का आगमन तो निरोध हो ही जायगा परतु जो प्राचीन शेष कर्म रहते हैं ये स्वाध्याय और ध्यान तप के द्वारा भय किये जा सक्ते हैं।
सो जय मर्वथा आत्मा कमों से रहित हा जायगा तर इसको निर्वाण पद की प्राप्ति अवश्य होजायगी।
क्योंकि यह बात भली प्रकार से मानी हुई है कि:"ध्याता, ध्येय, और ध्यान" ये तीन हाते हैं परतु जर आत्मा ध्येय में तल्लीन होजाता है तर यह तीनों से एक ही रह जाता है। निम प्रकार कल्पना करो कि किसी व्यक्ति के स्ससीय पुत्र को विद्या अध्ययन कराता है तब यह तीनो का एकत्र करना चाहता है । जमे कि- एक विद्यार्थी और दूगरा पुस्तक नीलरा अध्यापक । नब वह विद्यार्थी पढार अध्यापक की परीभामे उत्तीर्ण होजाता हे नर वह पूर्व तीनों पी का धारण परनवाला वय ही बन जाता है । ठीर सी प्रकार जन 'पाता ध्येय मे तीन होजाता है तब वह तदरूप ही
होजाता है।
जिस प्रकार एक दीपक के प्रकाश में महत्री दीपको या प्राश एक रूप होकर ठहरता है ठीक उमी प्रकार ध्याता, ध्येय में तल्लीन होजाता है।