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अतएव सिद्ध हुआ कि आर्य और भक्ष्य आहारादि के - सेवन से सुख पूर्वक शरीरादि की रक्षा और धर्म का पालन किया जाता है ।
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जिस प्रकार आर्य और भक्ष्य आहारादि द्वारा धर्म पुर्वक निर्वाह होसक्ता है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी औपर ये मेनून की भी अत्यंत आवश्यक्ता है । क्योंकि जिस प्रका स्वदेगी आहार शरीर की रक्षा में उपयोगी मानागया है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी औषध भी शरीर की रक्षा में मरम उपयोगी कथन किया गया है। कारण कि जिम देश के ज वायु के सहारे जीवन व्यतीत किया जाता है ठीक उसी देश मे उत्पन हुए औषध भी शरीर को हितकारी माने गए हैं ।
प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि स्वदेशी औषध के निना विदेशी औषध के सेवन से भक्ष्य और अभक्ष्य तथा पवित्रता और अपनियता का भी विवेक नहीं रह सक्ता । था सवथा माय मूल मे रोग की निवृत्ति भी वे औषधि नहीं कर सक्ती । इसी कारण से प्राय जिस प्रकार औषधिया घढगई हैं उसी प्रकार रोग भी वृद्धि को प्राप्त होते जा रहे हैं।
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क्योंकि स्वदेशी भोजन ही प्रमाण पूर्वक किया हुआ रोगों के शान्त करने में समर्थता रखता है । तो भला फिर स्वदेशी औषधि का तो कहना ही क्या है ?