Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

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Page 181
________________ २७४ ताए अब्भुट्टे यव्य भवति ७ साहम्मि, वाण मधि करणसि उप्पणति तथ्य अणिरिसतो वस्तिो अपेक्ख'गाही मज्झत्य | भाव भूते कहण माहमिया अप्पसद्दा अप्पझझा अप्पतुमतुमा उवसामण ताते अब्भुठ्ठे यव भषति ८ * Pr} ठाणाग सून स्थान ८ सू ६४९ ( समितिवालां ) 1 T अर्थ -- श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी प्रति पा करते हैं कि हे आयों ! आठ स्थानों की प्राप्ति में योग काय करना चाहिये | प्राप्त कार्यों में उसके रसने के लिये यत्न करना चाहिये । शक्ति क्षय समय तक इनका पालन करना 1 + , 2 - चाहिये । उत्साह पूर्वक इाम पराक्रम करना चाहिये । अर्थात् किसी प्रकार से इन स्थानों के पालने में प्रमाद न करना चाहिये जैसे कि → १ जिस ૩ श्रुत लिये उद्यत हो जाना चाहिये । २ सुों हुए श्रुत धर्म को विस्मृत न करना चाहिये । पाप कर्म का सयम द्वारा निरोध करना चाहिये । 1 'q f"} ↓ 1 } }-- ४ तपस्या द्वारा प्राचीन कम का निर्जरा कर देनी चाहिये " अर्थात आत्म विशुद्धि करनी चाहिये । म + धर्म को पूर्व नहीं सुना है उसके सुनने के + मद

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