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विका यह होना स्वाभाविक बात है । जैसे कि एकतो युवा पुरुष की मृत्यु हुई और दूसरे एक ९० वा. सौ वर्ष के पुरुष की खुई। पतु मृत्युधर्म समान होने पर भी अवस्था के
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कारण से नियोग में विभिन्नता अनुश्य देसी जाती है ।
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लोक से लिखना पडता है कि उस विभिन्नताने लौकिक मैं और ही रूप धारण कर लिया है, जैसे कि - युवा की, मृत्यु समय अन्य नियोग और वृद्ध की मृत्यु समय अत्यत प्रमोद
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ना ही नहीं किंतु उपहास्यादि के वशीभूत होते हुए उम इ के गर की दुर्दशा देखने में आती है । कोई छज्ज (सूप 1
फूटा ढोल बजाता है, कोई, असभ्य गीत गाता है, कोई
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शरम नाचता है इत्यादि किया करते हुए उस वृद्ध वो बड़े कष्टी के साथ मृत्यु सस्कार के स्थान तक पहुंचाते हैं । फिर अभि-सरकार के समय मे भी उसके शव की दुर्गति की जाती है तो भला बिचारने की बात है कि क्या ये नियाए आर्य पुरुषों के लिये लज्जास्पद नहीं है ? अवश्यमेव हैं । तथा क्या इन क्रियाओं के करने से कोई योग्यता पाई जाती | कदापि नहीं |
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"अरण्य इस प्रकार की क्रियाओं का परिहार अवश्यमेन के नेताओं को करने योग्य है । तथा " मृत्यु - सरकार के रात बहुत मे गणों में प्रथा है कि ये जीमनवार (मौसर ) करते ई। कई स्थानों पर निर्धन परिवार को केवल गण के भय से उक्त क्रिया करनी पडती हैं और वे दोनों प्रकार से दुसित