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पुत्र-पिताजी घे जीव तो हम दुख देते हैं फिर उन्हें क्यों
न मारना चाहिये। पिता-पुग। वे जीव अपनी असावधानी के कारण स
ही प्राय उसन्न होते हैं तो भला यह विधर का न्याय है कि प्रमाद तो आप करें और दड, उन जीवों को ! इससे स्वत सिद्ध है कि यदि सय काम सावधानता पूर्वक किये जॉय तो जीवोप्तत्ति बहुत ही पल्प होती है। इसलिये जू आदि जीयों का कदापि न मारना चाहिये । परतु यत्न पूर्वक जिस प्रकार उनके प्राणों की रक्षा हो सके उमी प्रकार
अन्य वखादि में उन्हें रख देना चाहिये । पुत्र --पिताजी । जू आदि के कहने से मैं यह नहीं, समझा
कि आदि के रहने से आपका कौन • से जीवों
मे सभ्यन्ध है? पिता-पुत्र आदि के कहने में यावन्माग सजीव है। उन
ममों का गृहण किया जाता है। मो निरपराधी किमी भी जीव के जानकर प्राण न छीनने चाहिये।
क्याकि जप दयायुक्त भाव यने रहेंगे तव प्राणी मयिश और सदाचार से विभूपित होता हुआ अपने और परके पल्याण करने में ममर्थ हो जायगा।'