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वन मे निमु भी नहीं हो सका। जय मोहनीय वर्म से विमुक्त न हुआ तब यह आत्मा कर्म या से भी छुट नहीं मता ।
फिर यह बात स्वाभाविक मानी है जियतक छुइ आत्मा क्मों से रहित art etat as a यह निर्माण की
प्राप्ति भी नहीं कर मरेगा ।
अव निर्ममत्वभाव व व म्यन करना चाहिये ।
तथा इस बात का भी हृत्य में चिन्त्वन करता चाहिय कि जय स्वशरीर की भी मर्द प्रकार से अस्थिरता ख जाती है तो fre मत्यभाव दिस पार्थ पर किया जाय
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आपके
अतण्य श्री आचारण सूत्र में लिया है कि " पुरिसा तुममेव तुम मित्त किंवरियामित्तमिम पुम्प तूही अपनी आत्मा का मित्र है तो फिर क्या तू बाहिर में मित्र की इच्छा करता है ? इस पाठवा भार यह है कि श्री भगवान भव्य जीवों प्रति उपन करते हैं कि हे पुरुषा । तुमही अपने आत्मा के मित्र होतो फिर क्यों तुम अन्य मित्रों की आशा करते हो ? क्योंकि जब तुम्हारा जीवन सदाचार और सद्विधा से विभूषित हो जायगा नय मय जीव प्राय तुमको ही अपना उपास्य मानने लग जायेंगे और प्रेम पूर्वक तुझारी
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