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मुशियति वा ही कही जाती समापि उसी ममार में रहने हुए भी मर्षया अममय यत्ति भी नहीं अतः उसे परिझम का म " याल पटित वीर्य है। पयोगि निम प्रगर वह समारिक पार्यों में भाग लेता है यदि गमे अधिक मा उमथे तुल्य ही शो कमदी मही कुण भाग पामिर कायों में भी ले ही रहा है। इसी कारण मे थी भगयार ने भी पुन गृहस्थ की गुफा नाममा प्रतिपादन की है।
भाया के द्वाश प्रा या ११ उपामा की प्रतिमाए इत्यादि नियमा यो यथाशात पालन किये जारहा है।
इसी धास्त गो परिश्रम का नाम पालपडितयीय । उक्त स्थान से यह स्थन ही सिद्ध होगया कि व्यारमा का नाम पलवीर्यात्मा मुक्ति युक्त है।
जिस प्रकार उपाधि भेद से आरमद्रव्य के आट भेद पणन किये गये, ठीक उसी प्रकार पमों की अपेक्षा मे और जीव का परिणात्रिय भाय होभे आदयिक, ओपसमिक, मायिक क्षयोपशामिन, और पारिणामिक भाव भी जीय दून्य के पथन किये गए हैं। अब प्रभ या उपस्थित होता है कि उस माया का और द्रव्य के साथ क्या सम्बन्ध है और य भाष जीव के किम प्रकार मम्मन्धी कहे जाते हैं। इस प्रभ के उत्तर म कहा जाता है कि जीव या विमी नय