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कल्पना करो कि जन चारी ही ममवाय ठीक मिल नाय तर फिर पुरुषार्थ की भी असत आवश्यकता है क्योंकि बिना पुरुषार्थ किये वे चारों समवाय निरर्थक होने की भावना की जासकेगी ।
अतपय जन पाचना समवाय पुरुषार्थ भी यथानन मिलगया तन वह कपिल अपनी क्रियासिद्धि में सफल मनोरथ हो सक्त है ।
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सो इसी न्याय से आत्मा भी कर्म बाधने ना भोगने में उत्त पाच मनायों की अवश्यमेव आवश्यक्ता रखता है।
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क्योंकि जिस प्रकार एक सुलेसक मपीपान वा पनादि मामी के बिना लेसन क्रिया में सफल मनोरथ नहीं हो मक्ता, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी उक्त पाचों समवाया के बिना मिले किसी भी किया की सिद्धि में सफल मनोरथ नहीं हो सका ।
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aava निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि पाच माका भिलना अत्यावश्यक ही है ।
प्रश्न - नय आत्मा पुण्य प्रकृतियों का वध करता है तो
फिर क्या वे पुण्य प्रकृतियाँ किसी विशेष कारण से शप फल के देने वाली भी बन जाती है ?
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