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जिन आत्माओंने मदाचार से मुख मोडलिया है वे नाना प्रकार के दुपयों का अनुभर कर रहे हैं।
कारण कि मदाचार के विना मनुष्य का जीवन निरर्थक माना जाता है क्योंकि यह थपने जीवन का सर्वस्व सो घेठता है । जिस प्रकार तिलों से तेल के निकल जाने पर शेप सी रह जाती है तथा दधि से माखौ ( नमनीन) के निकल जाने पर पिर तुन्छ रूप तक छाम (छा) रह जाती है या इशु रस के निक्ल जाने पर फिर इशु का तुन्छ फोक रह जाता है या उदन् (चावलों के निकल जाने पर फिर केवल तुप रह जाता है ठीक उसी प्रकार मदाचार के न रहने स शेप जीवन भी निरथर रह जाता है।
अन प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मदाचार किये कहते है ? इमके उत्तर में कहा जाता है कि जिन क्रियाओ के करने मे आत्मा अपने निज सरुप में प्रविष्ट होजाय उसीका नाम माचार पा धारिन है क्योकि आत्मामा अनानि पाल से कमां का मग होने से नाता प्रसार के दुमा का अनुभव कर रहा है परतु जर यह भात्मा कर्ममल से विमुक्त होता है तय ही यह आत्मा अपने निन स्वम्प में प्रविष्ट हो सका है।
सो उस स्वरूप में प्रविष्ट होने के लिये सर्वत्रनत और देयत इस प्रकार के दा प्रकार से चारित्र का वर्णन किया गया है जैसे कि --