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लिया तो फिर ज्ञान आत्मा मे प्रथफ नहीं होता। निम प्रकार किसी ने कहा कि “ अमुक पुरुप ने कहा कि अमुक शब्द मैंने अपनी कर्णेद्रिय (कानों द्वारा सुना है.)" तो क्या फिर शट सुनने के पश्चात यह सुनने ? याला आत्मा कर्णद्रिय से रहित होजायगा ? कदापि नहीं ।। F · सो उक्त युक्तियों से ज्ञान को करण साधन मानना युक्ति युक्त है तथा इमी प्रकार ज्ञान को अधिकरण मानना भी न्याय मगत है कारण कि ज्ञानसे कोई भी पनार्थ बाहर नहीं है । इम न्याय के आश्रित होकर यह भली माति से कहा जासक्ता है कि ज्ञान में ही मय पार्थ ठहरे हुए हैं। . . . .
असण्य निरुप यह, निकरा कि ज्ञानात्मा मानना युतियुक्त मिद्ध है।
___ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्मा ज्ञानरूपही है तो फिर परसर बुद्धि आदि की विभिनता क्यों है ?,
इसके उत्तर में कहा जा सका है फि ज्ञानावरणीय कर्म के कारण से शान "दय मे जीवो की विभिन्नता देसी जाती है जैसे कि --
कोई मद बुद्धि वाला है और कोई आशु प्रमावाला है। इसी क्रम से उत्तरोत्तर विषय संभावना कर लेनी चाहिये । क्योंकि अससारी आत्मा छद्मस्थ और मुक्त आत्मा सर्यज्ञ और सर्वदशी है।
। सो उक्त कारण से मानावरणीय कर्म के पाच भेद वर्णन किये गये हैं, जैसे कि --मति ज्ञानायरणीय १ श्रुत