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शरीर के अतिरिक्त वाहिर होना चाहिये मो एमा नहीं होन से यह पक्ष भी प्रत्यक्ष से विरोव रखता है तथा जन अनत आत्मा के मानने पर फिर प्रत्येक आत्मा से " विभु " रूप माना जाय तब उन आत्माओं के आत्म प्रश व कर्मों की परस्पर ममता अवश्य होजायगी । जिससे फिर सकट रोप की प्राप्ति सहज में ही होजायगी । अतएव विरूप मानना भी युक्ति युक्त नहीं है । तथा जब हम देखते हैं तय वुद्धि आदिका अनुभव शरीर के भीतर ही किया जाता हे न तु शरी से बाहर
यदि ऐसा कहा जाय कि - जय किसी वस्तु का अनुभव करना होता है वन एकान्न स्थान या उ दिशा की ओर ही देखा जाता है इसमें म्पत सिद्ध है कि यदि आत्मा विमुन होता तो फिर एमन्त या उने दिशा के देखने की क्या आवश्यकता थी ?
सो यह कथन भी युक्तिवाधित ही है क्योंकि जब आत्मा सर्व व्यापक ही मानलिया गया तय फिर एकान्त वा उ दिशा के देखने की आवश्यक्ता ही क्या है ? क्योंकि आत्मा सर्व व्यापक एक रसमय ही मानना पड़ेगा : नतु न्यूनाधिक ।