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क्योकि ज्वरादि के आवेग हो जाने पर शरीर + सर्व गोपा दुस का अनुभव करते हुए दृष्टि गोचर होते हैं ।
अतएव व्यवहार पक्ष मे आत्मा मध्यम परिमाणवर्त मानना युक्ति युक्त सिद्ध होता है । प्रश्नः - क्या कभी आत्मा लोक के समान लोक में व्यापक हो जाता है ?
उत्तर -हा हो मता है ।
मठन कब ?
उत्तर - जिस केवली भगवान का आयुण्यकर्म न्यून हो किंतु असातावेदनीय कर्म आयुष्यकर्म की अपेक्षा afar होवे तब उस केवली भगवान को केवलीसमुद्रात होजाता है जिसके कारण में उनके आत्म प्रदेश शरीर मे बाहिर निकलकर सर्व लोक में व्याप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार तेल का बिंदु जलोपरि विस्तार पाजाता है ठीक उसी प्रकार आत्म प्रवेश
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Free में व्याप्त हो जाता है । यद्यपि प्राय असातावेदनीय कर्म के भोगने के लिये ही यह क्रिया होती है तथापि लोकाकाश परिमणा आत्म प्रदेशों का विस्तार हो जाना उस अपेक्षा से आत्मा त्रिभु कहा जा सका है। यद्यपि यह शा जीवकी
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