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अतण्य किसी एकान्त स्थान की तो इसलिये आव श्यस्ता पडती है कि निससे कोलाहल या शादि का विशेष सकुल न हो क्योंकि तु कारणों से चिवृत्ति स्थिर न रहने से कार्य सिद्धि का प्राय अभाव सा प्रतीत होने लगता है सो उन कारणों में विभुरूप भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकी है।
तय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि फिर आत्मा का प्रमाण किम प्रकार मानना चाहिये । इस प्रश्न के उत्तर में कहा जासता है कि यदि हम द्रव्यआत्माके प्रदेश की ओर देखते हैं तब तो वे प्रदेश धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा लोकाकाश के यापन-मान प्रदेश है तारमत्रा प्रदेश एक आत्मा के प्रतिपादन किये गए है।
इस क्थन से तो कथचित आत्मा विभु भी माना जा सकता है। किंतु आत्म प्रदेश समुचित और विकास होने के स्वभाव के कारण से मध्यम प्रमाणवर्ती प्रतिपादन किया गया है।
“नमे निम शरीर में आत्मा प्रविष्ट होता है तय " उस आत्मा के आत्म प्रदेश तारन्मान शरीर में ही व्याप्त हो जाते हैं जिससे सुरस या दुस का अनुभन करने वाला सर्व [ सारा ] शरीर देखा जाता है,