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जाता हैपिर जय सत्य और अमन्य इस प्रकार के समन्य उमस होने लगते हैं तय उस ममय मिमिन मनायोग कहा जाना है। अपितु जय असन्य अमृषा मरस्प ना होने लगता है नत्र उम ममय व्यवहार मन योग कहा जाता है।
क्योंकि " अमत्यामृपा " उमका म! जो पास्सय में असत्य ही होये परतु व्ययहार पक्ष में उसे अमत्य भी 7 पहा जा सके । अमे किमी पथिक ने कहा कि यह " प्राम आगया " सोस क्थन से यह तो भरी भानि भिर ही जाता है कि पथिक दी जा रहा है नतु प्राम उमफे पाम आ है । परतु व्यवहार पक्ष में यह याक्य पहने में आता ही है कि यह प्राम आगया है मो इस प्रकार के पन्नों का नाम " असत्यामृपा " सफल्म कहा जाता है। माँ इस प्रकार चार प्रसार के सपल्प मन योग में कहे जाते है।
जन आत्मा या मन से मम्य प होगया तय उपचारक नय पी अपेक्षा से या परस्पर सम्बंध की अपेक्षा मे मन या भी आत्मा कहा जाता है। पिस प्रकार आत्मा गा मनमे मम्यप है ठीक उसी प्रकार पचन और काय के सम्पय विषय म भी जाना चाहिये । क्योकि मन योग घचनयोग और काययोग केयर आत्मा के सम्बन्ध से ही कहे जाते हैं।
अतः द्रव्यात्मा को कपायारमा भीम नय की अपेक्षा से कहा जाता है।