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चाहिये । क्योंकि दोनो की समानता परस्पर मम है। इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है कि जो जैन मत में योगात्मा और पायात्मा किसी नय की अपेक्षा से कर्ता मानी गई है. क्योंकि उनमें भी द्रव्यात्मा का परिणमन माना गया है सो द्रव्यात्मा का परिणमन होने से ही उन आत्माओं की फर्ता मक्षा हो गई है। क्योंकि मन वचन और काय तथा शोध मान माया और लोभ यह द्रव्यात्मा के आश्रित होने से ही इनकी आत्मा सज्ञा बन गई है।
सो सिद्धात यह निकला कि प्रकृति कर्ता और पुरुष भोक्ता मानना यह पक्ष युक्ति युक्त नहीं है।
द्वितीय पाठ।
आत्मा ।
शास्त्रकारों ने आत्मा विषय अनेक प्रकार से वर्णन किया है। क्योंकि आत्मा की सिद्धि हो जाने से ही फिर बद्ध
और मोक्ष की मिद्धि की जा सकेगी। कारण कि बद्ध और मोक्ष कर्मों की अपेक्षा से आत्मा कथन किया गया परतु आत्मा तो एक अजर अमर अविनाशी आदि गुणों के धारने वाला है। इसमें, 5 सदेह नहीं है कि जब आत्मा"