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उदाहरण के लिये 'भगारी' शब्द की व्याख्या के अन्तर्गत एक 'श्रावक' शब्द को ही ले लीजिये । हमें तो इस साब्द के विषय में यह ज्ञात था कि यह 'जैनी' शब्द का पर्यायवाची शब्द है और जैनी जैनधर्मानुयायी व्यक्ति को कहते हैं । कोषकार महोदय इसके विषय में हमें सूचना देते हैं कि उसमें १४ लक्षण, ५३ क्रियायें, १६ संस्कार, ६३ गुण, ५० दोषत्याग,
मूलगुण, ११ प्रतिमायें या श्रेणियां, २१ उत्तरगुण,१७ नित्यनियम, ७ सप्तमौन, ४४भोजनअन्तराय, १२ व्रत, २२ अभक्ष्यत्याग, और ३ शल्यत्यागों का वर्णन उससे संबद्ध है। जिनके नामों का अलग अलग विवरण भी इसी शब्द की व्याख्या में दे दिया है।
(२) एकही नियम पर अपने तथा जैनधर्म के सम्बन्ध ऐक्य और विपर्यय का परिचय प्रात होता है जिस से तर्कनाशक्ति की वृद्धि हो कर सत्यासत्य के निर्णय करने में अच्छा बोध होसकेगा।
(३) लिपियों तथा न्याय, इतिहास, गणितादि कई विषयों पर की दुई व्याख्या सभी के लिये समान लाभकारी है। ६. कोष के इस खण्ड की विशेष उपयोगिता
कोष के इसी खंडान्तर्गत निर्दिष्ट अन्यान्य उपयोगी शब्दों की भी अकारादि क्रम युक्त एक सूची लगा दीगई है जिसने सोने में सुगन्धि का कार्य किया है। इसके द्वारा केवल "अ" नियोजित "अण्ण" शब्द तक के ही शब्दों का नहीं वरन् 'अ' से 'ह' तक के भी लगभग बा. रह सौ.( १२०० ) अन्य शब्दों के अर्थ आदि का भी बोध इसी छोटे से प्रथमखण्ड से ही हो सकेगा । अतः यह कहना अनुचित न होगा कि यह अपूर्ण कोष अर्थात् प्रथमखंड ही बहुतांश में एक संक्षिप्त पूर्ण कोष का सा ही लाभ पहुँचा सकेगा। . ७. उपसंहार. इसमें सन्देह नहीं कि यह कोष बहुत ही काम की वस्तु है। ऐसा उत्तम कोष सम्पादन करने के उपलक्ष में मैं श्रीयुत कोषकार महोदय को साधुवाद देता हुआ आशा करता हूं कि जैन धर्मावलम्बी महानुभाव तो इस अपूर्व और महत्वपूर्ण गून्थ को अपने मन्दिरों, पाठशालाओं, पुस्तकालयों और घरों में स्थान देंगे ही पर जैनेतर विद्याप्रेमी तथा हिन्दी साहित्य वृद्धि के अभिलाषी महानुभाव भी कम से कम अपने निजी व पब्लिक पुस्तकालयों और विद्यालयों में इसे अवश्य स्थान देकर अपने उदार हृदय का परिचय देंगे जिससे इस महत्वपूर्ण और अपने ढंग के अपूर्व गून्थका प्रचार कस्तूरीगन्ध सदृश फैल कर हिन्दी संसार को एकदम सौरभान्वित करदे । किंबहुना ॥
भवदीय बारावङ्की (अवध)
( बाबुराम बित्थरिया, साहित्यरत्न,
*सिरसागंज जि० मैनपुरी निघासी, रामनवमी, वि० सं० १९८२ ) साहित्य अन्वेषक नागरी प्र० स०, काशी।
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