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अप्रविष्ट श्र तज्ञान
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वृहत् जैन शब्दार्णव
के स्वरूपादि का यथार्थ निरूपण है ॥ नोट १ - देखो शब्द "अक्रियावाद" नोट २ - १८० भेद युक्त क्रियावाद के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्यों में कल, कण्ठी, अविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्र अन्धपिक, रोमश, हारीत, मुंड, आश्वलायनीत्यादि हुए। ८४ भेद युक्त अक्रियावाद में प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, बाड्वलि ( बालि), माठर, मौद्गलायन, इत्यादि हुए । ६७ भेद युक्त अज्ञानवाद के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सत्यमुनि, नारायण, कठ, माध्यन्दिन, भोज (मौद), पैप्पलायन, वादरायण, स्विठिक्य, दैत्यकायन, वसु, जैमिन्य, इत्यादि हुए। और ३२ भेद शुक्त 'विनयवाद' के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य वसिष्ठ ( वशिष्ठ ), पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्वदत्त, व्यास, एलापुत्र, उपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अगस्ति इत्यादि हुए ॥
(३) प्रथमानुयोग -- यह उपांग ५००० मध्यमपदों में वर्णित है ।
इस में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती. नारायण, ६ वलभद्र, ६ प्रतिनारायण, इन ६३ शलाका पुरुषों के चरित्र का लपित्तारनिरूपण है ।।
(४) पूर्वगत -- यह उपांग १५५०००००५ मध्यमपद में वर्णित है ।
इसके निम्न लिखित १४ विभाग हैं:१. उत्पादपूर्व- - यह पूर्व १ करोड म ध्यमों में वर्णित है । इस में प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद व्यय भोग्य और उन के अनेक संयोगी धर्मो का अनेक प्रकार नयधिवक्षा कर सविस्तार निरूपण है ॥
२. आग्रायणीयपूर्व- - यह पूर्व ९६
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अनुप्रविष्ट शुतज्ञान
लाख मध्यमपदों में वर्णित है । इस में द्वादशांग का सारभूत पञ्चास्तिका, घरद्रव्य, सप्ततत्व, नवपदार्थ आदि का तथा ७०० सुनय और दुर्वय आदि के स्वरूप का सविस्तार निरूपण है ॥
नोट - इस पूर्व के सम्बन्ध में विशेष कथन जानने के लिये देखो शब्द "अमायणीपूर्व" ॥
३. वीर्यादवादपूर्व- - यह पूर्व ७०००००० ( सत्तर लाख ) मध्यमपदों में वर्णित है । इस में स्वदीर्य ( आत्मवीर्य ), परवीर्य ( फुद्गलादि अनात्सर्य ), उभयवीर्य, द्रव्यवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भादवीर्य,
वीर्य इत्यादि द्रव्य, गुण, पर्याय की शक्तिरूप अनेक प्रकार के वीर्थ (सामर्थ ) का निरूपण है ॥
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४. अस्तिनास्तिवापूर्व - यह पूर्व ६० लाख मध्यमपदों में है। इस में प्रत्येक द्रव्य या वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप का साधन सप्तभंगी न्याय द्वारा अनेकानेक नयविवक्षा कर सात सात से किया गया है। यथा 'जीव' व्य, क्षेत्र, काल, भाव ) की अपेक्षा 'अस्तिरूप' है। परमुष्य की अपेक्षा 'वास्तिरूप' है, में अस्ति और नास्ति यह दोनों धर्म सापेक्ष पर उपस्थित है इस लिये वह शित् 'अस्तिनास्ति' रूप है; जीवद्रव्य का यथार्थ और पूर्ण स्वरूप बताना वचन अगोचर है--केवल स्वानुभवगम्य या शानगव्य ही है- --अतः वह कथञ्चित् अनिर्वचनीय या "अवक्तव्य' है; जीवद्रव्य में उपर्युक्त अलग अलग अपेक्षाओं से अस्तिपना और अवकव्यपना दोनों ही धर्मयुगपत्
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