Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 306
________________ ध ( २४२ ) अठारह जीवसमास ____ अठारह दोष मिनिट का होता है । उत्कृष्ट अन्तमुहर्त एक (१८) संशी पंचेन्द्रिय । अर्थात् स्थावर समय कम एक मुहूर्त का और जघन्य अन्त- (एफेन्द्रिय ) जीवों के १३ भेद और त्रस मुहूर्त एक समय अधिक एक आवली प्रमाण (द्वन्द्रियादि ) जीवों के ५ भेद, एवम् काल का होता है। सर्व १८ जीवसमास ॥ नोट २--यहां एक अन्तमुहूर्त यदि २. द्वितीय रीति-उपरोक्त स्थावर उत्कृष्ट अन्तमुहर्त को ही ग्रहण किया जाय जीवों के १३ भेदों में प्रत्येक वनस्पति के और ३७७२ या३७७३ श्वासोच्छ्वासही होना सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित, यह दो भेद एक अन्तमुहर्त में माना जाय तो भी जन्म गिनने से स्थावर जीवों के सर्च १४ भेद मरण की उपरोक्त संख्या ६६३३६ को ३७७२ और द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचे या ३७७३ का भाग देने से १७॥ (साढ़ेलत- न्द्रिय, यह चार भेद त्रस जीवों के, इस रह ) से कुछ अधिक प्राप्त होने के कारण प्रकार सर्व १८ जीवसमास हैं। उत्कृष्ट संख्या पूरी १८ ही मानी जायगी॥ . ३. तृतीय रीति--पंच स्थावर और नोट ३-एक मुहुर्त में जो ३७७३श्वा- एक प्रस, यह ६ भेद पर्याप्त आदि तीनों सोच्छ्वास माने गये हैं वह बाल श्वासोच्छ्- प्रकार के होने से १८ जीवसमास हैं । वास हैं अर्थात् एक मुहूर्त में तुरन्त के जन्मे ४. चतुर्थ रीति--पृथ्वीकायिक आदि स्वस्थ बालक के ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते स्थावर ५ भेद, और विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, हैं । यह एक श्वासोच्छ्वासकाल स्वस्थ युधा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ) के पर्याप्त, निवृत्यपुरुष के एक बार नाड़ी फड़कन काल की पर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त भेदों से भेद और बराबर एक सेकेन्ड से कुछ कम समय का पंचेन्द्रियों के तिर्यञ्च, मनुष्य,देव, नारकी, या लगभग दो विपळ का होता है। यह ४ भेद, एवम् सर्व १८ जीवसमास . (गो० जी० १२२-१२४) हैं । इत्यादि अन्य कई रीतियों से भी अठारह जीवसमास-१८ जीवसमास १८ जीवसमास हो सकते हैं। (पीछे देखो निम्नलिखित कई रीतियों से गिनाये जा शब्द 'अट्ठानवे जीवसमास', पृ० २२९)। (गो० जी० ७५-८०) १. प्रथम रीति-(१) स्थल पृथ्वीका- अठारह दोष-निम्नलिखित १८ दोष यिक (२) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक (३) स्थूल हैं जो श्री अरहन्तदेव में नहीं होतेःजल काथिक (४) सूक्ष्म जलकायिक (५) (१) जन्म (6) जरा (३) मरण (४) स्थूल अग्निकायिक (६) सूक्ष्म अग्निका- रोग (५) भय (६) शोक (७) क्षुधा (८) यिक (७) स्थूल पवनकायिक (E) सूक्ष्म तृषा (९) निद्रा (१०) राग (११) द्वेष पवनकायिक (5) स्थल नित्यनिगोद (१०) (१२) मोह (१३) स्वेद (१४) खेद (१५) सूक्ष्म नित्यनिगोद (११) स्थल इतरनिगोद विस्मय (१६) मद (१७) अरति (१८) | (१२) सूक्ष्म इतरनिगोद (१३) प्रत्येक बन- चिन्ता॥ स्पति (१४) द्वीन्द्रिय (१५) श्रीन्द्रिय (१६) अनगार धर्मामृत अ० २ । चतुरिन्द्रिय (१७) असंज्ञी पंचेन्द्रिय श्लोक १४ । १,२, ३, रत्न०६ । सकते हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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