Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 316
________________ ( २५२ ) अठासी ग्रह वृहत् जैनशब्दार्णव अठासी ग्रह संधि ( ३१ ) प्रथि (३२) मान (३३) | इन ही से काम लिया जाता है और इसलिये चतुःपाद (३४) विद्यज्जित ( ३५ ) नभ साधारण गणित ज्योतिष ग्रन्थों में भी अन्य (३६) सदृश (३७ ) निलय (३८) काल की उपेक्षा कर इन ही ७ का सविस्तार व (२६) काल केतु (४० ) अनय ( ४१) र्णन है । इन ७ ग्रहों में चन्द्र और सूर्य, इन सिंहायु (४२) विपुल ( ४३ ) काल दो को मिला कर ज्योतिषी लोग नवग्रह (४४) महाकाल (४५) रुद्र (४६) कहते हैं । यद्यपि यह दो वास्तव में ग्रह महारुद्र (४७) सन्तान (४८) संभव नहीं हैं तथापि फलित ज्योतिष में इन से (४६) सर्वार्थी (५०) दिशा (५१) शांति भी ग्रहों की समान ही काम लिया जाता है। (५२) बस्तन (५३) निश्चल (५४) प्रलंभ इसी लिये यह दो भी वास्तविक ७ गहों से। (५५) निमंत्र ( ५६ ) ज्योतिष्मान (५७) मिला कर नवगह कहने में आते हैं। स्वयम्प्रभ (५८) भासुर (५६) विरज नोट ३-बहुत लोग जानते हैं कि । (६०) निदु:ख (६१) वीतशोक (६२) यह नवगृह ही हम मनुप्यों को सर्व प्रकार | सीमङ्कर (६३) क्षेमङ्कर (६४) अभयंकर का सुख दुःख देते रहते हैं परन्तु वास्तव में (६५) विजय (६६) वैजयन्त (६७) जयन्त | ऐसा नहीं हैं। वे हमें किसी प्रकार का सुख (६८) अपराजित (६६) विमल (७०) त्रस्त | दुःख नहीं देते और न वे किसी प्रकार भी (७१) विजयिष्णु (७२) विकस (७३) करि- हमारे सुख दुःख का कारण हैं । इसी लिये काष्ठ (७४) एकजटि (७५) अग्निज्वाल | उनका अरिष्टादि दूर करने के लिये जो पूजन, (७६) जल केतु (७७) केतु (७८) क्षीरस अनुष्ठान, जप आदि किये जाते हैं उन से | (७६) अघ (८०) श्रवण (८१) राहु (८२) घे प्रसन्न भी नहीं होते और न वे हमारा महाग्रह (८३) भावग्रह (८४)मंगल (अंगार) | कोई भी कष्ट दूर करने में हमें किसी प्रकार | (८५) शनैश्चर (८६) बुध (८७) शुक्र (८८) की सहायता ही देते हैं । हां इतना अवश्य धृहस्पति ॥ है कि गणित ज्योतिष शास्त्रों के नियमानु-! (त्रि० ३६३-३७०) कल उनके गमनागमन से १२ राशियों में। नोट १-जम्बूद्वीप सम्बन्धी दो च. उनकी स्थिति आदि को भले प्रकार जानकर । न्द्रमा हैं प्रत्येक चन्द्रमा का परिवार ८८ तथा अपने जन्म समय के द्रव्य, क्षेत्र, काल, ग्रह, २८ नक्षत्र और ६६९७५००००००००००० भाव आदि का उन से सम्बन्ध मिला कर १०० तारे हैं। हम अपने पूर्व कर्मों के निमित्त से होने वाले (त्रि० ३६२) सुख दुःख के सम्बन्ध में पहिले ही से बहुत नोट २-उपरोक्त ८८ ग्रहों में से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । इस प्रकार का नं० ७७, ८१, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८ (अ- ज्ञान प्राप्त कराने वाले नियमों का नाम ही र्थात् केतु, राहु. मंगल, शनि, बुध, शुक्र, 'फलितज्योतिष' है । यह नियम यदि किसी बृहस्पति ), इन ७ प्रहों का मनुष्य लोक के यथार्थशानी ऋषि मुनि द्वारा बताये हुए हैं या | साथ अन्य ग्रहों की अपेक्षा कुछ अधिक स- | उनही के वचन की परम्परागत हैं तो उन के म्बन्ध होने के कारण फलित ज्योतिष में | अनुकूल जाना हुआ फल अवश्य सत्य होता। KAROO Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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