Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 323
________________ ( २५६ ) अढ़ाईद्वीप वृहत् जैनशादार्णव अढ़ाई द्वीप पाठ (६) ब्रह्मादेश के दक्षिण मलाया प्रायःद्वीप। १६, गौतम नामक १, दो भरत और दो के निकट समात्तरा ( लगभग १००० ऐरावत क्षेत्रों के निकट मागधादि नाम के मील लम्बा, २५० मील चौड़ा), जावा, १२, अभ्यन्तर तट पर२४और वाह्य तटपर बोरनियो, सेलीबीज़, न्यूगिनी और इनके २४, एवम् सर्वः५(+१६+१+१२+२४ दक्षिण में आस्ट्रेलिया ( लगभग २३६० +२४ ==५ ) अन्तरद्वीप हैं। मीललम्बा और १०५० मीलचौड़ा भारत इस प्रकार १७० आर्य देशों, और सीता, बर्षसेबड़ा) आदि बड़े और उनके आस सातोदा लवण समुद्र और कालोदकसमुद्र पास बहुत से छोटे छोटे अन्तरद्वीप हैं। के सर्व अन्तरद्वीपों की संख्या ४५४९१६४ नोट (ग)-उपरोक्त अन्तरद्वीपों में सी- (४५४८५२०+४८०+७+५:४५४६१ लोन, बोरलियो, आस्ट्रेलिया आदि कई बड़े ६४ ) है। बड़े और लकाद्वीप मोलद्वीप आदि सहस्रों (त्रि.६७७,६७८,808-8१३.९३१) छोटे २ रत्नाकर द्वीप है । और पौरम, क्यू- १५. अक्रश्रिम जिनालय ३६८-मेरु ५, रियायरिया, कच्छ, बम्बई, सालसट, | कुलाचळ ३०, वक्षारगिरि ८०,गजदन्त२०, रामेश्वरम, जाना, श्रीहरिकोटा, सागर, इप्वाकार ४, मानुषोत्तर १, जम्बूधातकीरामरी, चडबा, मरगुईआदि अनेक कुक्षिवास पुष्करवृक्ष५,शाल्मलीवृक्ष ५,और विजयार्द्ध हैं। शेष साधारण अन्तरद्वीप हैं। पर्वत १७०,इनमें अकृत्रिम चैत्यालय क्रम [२] अढ़ाईद्वीप सम्बन्धी १६० विदेह देशों से ८०, ३०, ८०, २०, ४,४,५,५,१७०, एवम् के १६० आर्यखंडों में से प्रत्येक के निकट सर्व ३६८ हैं । (पीछे देखो शब्द "अकृत्रिम सीता और सीतोदा नामक महानदियों चैत्यालय", पृ० २२)। में मागध, वरतनु और 'प्रभास'नामक तीन (त्रि० गा० ५६३) तीन अन्तरद्वीप, एवम् सर्व ४८० अन्तरद्वीप है। अढ़ाईद्वीप पाठ ( अढ़ाईद्वीप पूजनः । [३] लवण समुद्र में अभ्यन्तर तट से सार्द्धद्वयद्वीप पूजन )--अढाई द्वीप सम्ब ४२०००योजन दूर चार विदिशाओं में 'सूर्य' न्धी ३६८ अकृत्रिम जिन चैत्यालयों और नामक द्वीप ८,आठ अन्तर दिशाओमें "च उनमें विराजमान जिन प्रतिमाओं का, न्द्र" नामकद्वीप११, उसके अभ्यन्तर तट से १६० विदेह देशों में नित्य विद्यमान २० १२००० योजन दूर वायव्य दिशाम गौतम' तीङ्करों का, तथा पांच भरत और पांच नामक द्वीप १, भरत क्षेत्र के दक्षिण और ऐरावत इन १० क्षेत्रों में से प्रत्येक की ऐरावत क्षेत्रके उत्तर को समुद्र के अभ्यन्तर भूत भविष्यत वर्तमान तीन तीन चौबीसी तट से कुछ योजन दूर मागध,वरतनु और अर्थात् सर्व ३० चौबीसी (७२० तीर्थङ्करो. प्रभास नामक तीनतीन द्वीप और अभ्यन्तर का, इत्यादि का पूजन विधान है। तटपर ४ दिशा,४ विदिशा,८ अन्तर दिशा नोट १-इस नाम के प्राकृत, संस्कृत में तथा हिमवन, शिखरो, भरत सम्बन्धी | और हिन्दी भाषा में कई एक पाठ हैं जिनमें घेतान्य,और ऐरावत सम्बन्धी वैताट्य,इन से कुछ के रचयिता निम्न लिखित महाचारों पर्वतों के दोनों छोरों पर सर्व २४, | नुभाव हैं:-- और वाह्य तट परभी इसी प्रकार२४,एवम् १. श्री जिनदास ब्रह्मचारी--इनका सर्व७६(८+१+१+३+३+२४+२४= | समय विक्रम की १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध। ७६ ) अन्तरद्वीप हैं। और १६ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है ( संवत् [४] लवण समुद्र की समान कालोदक १५१० )। इनके रचित अन्य ग्रन्थ निम्न । समुद्र में 'सूर्य' नामक द्वीप८, चन्द्र' नामक | लिखित हैं: . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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