Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 334
________________ अणिमा ( २७० > वृहत् जैन शब्दार्णव नोट १ - जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र की अनागत चौबीसी के "श्री महापद्म" नामक प्रथम तीर्थंकर का पद मगध नरेश महाराजा श्र ेणिक "विम्बसार" का जीव प्रथम नरक से आकर पायेगा "श्री निर्मल" नामक १६ वां तीर्थङ्कर "श्रीकृष्ण चन्द्र" ९वें नारायण का जीव होगा और श्री अनन्त वीर्य नामक अन्तिम २४ वां तीर्थंकर "सात्यकि तनय" नामक ११ वें रुद्र का जीव होगा । (त्रि. ८७२, ८७४, ८७५) नोट २ -- जिस समय श्रीकृष्ण का जीव अनागत चौबीसी का १६वां तीर्थंकर 'निर्मल' नामक होगा उसी समय श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता “श्री बलदेव" का जीव मुक्तिपद प्राप्त करेगा || ( त्रि. ८३३ ) अणिमा - लघुता, अणुत्व, सूक्ष्म परिमाण, एक दैवी विद्या, एक ऋद्धि विशेष जिस के तपोबल द्वारा प्राप्त हो जाने पर अपना शरीर यथा इच्छा चाहे जितना छोटा बना सकने की शक्ति तपस्वियों को प्राप्त हो जाती है । यह शक्ति सर्व देवों और नारकियों में, तथा कुछ अन्य पर्यायों में जन्मसिद्ध होती है । नोट १ - यह ऋद्धि बुद्धि ऋद्धि आदि ८ ऋद्धियों मेंसे तीसरी विक्रिया ( वै क्रियिक) ऋद्धि के ११ भेदों में से एक भेद है जिन के नाम निम्नलिखित हैं:-- ( १ ) | अणिमा ( ३ ) महिमा ( ३ ) लघिमा ( ४ ) गरिमा ( ५ ) प्राप्ति ( ६ ) प्राकाम्य ( ७ ) ईशित्व ( ८ ) वशित्व ( ६ ) अप्रतिघात (१०) अन्तर्द्धान ( ११ ) काम रूपित्व ॥ Jain Education International अणिमा नोट २ - वैकियिक शक्ति दो प्रकार की होती है, एक पृथक विक्रिया और दूसरी अथक विक्रिया । जिस शक्तिले अपने शरीर से पृथक् ( अलग ) युगपत् अनेक शरीरादि की रचना विजात्म प्रदेशों द्वारा की जा सके उसे "पृथक् वैकिकिशक्ति" कहते हैं । और जिस शक्ति से अपने ही शरीर को यथा इच्छा सूक्ष्म, स्थूल, हलका, भारी आदि अनेक प्रकार के रूपों में यथा इच्छा परिवर्तित किया जा सके उसे 'अपृथक वैकिथिक शक्ति' कहते हैं । नोट ३ - सर्व प्रकार के देवों और नारकियों का शरीर जन्म ही से वैकियिक होता है जिस से देव तौ पृथक और अपृथक दोनों प्रकार की, और नारकी केवल अपृथक वि क्रिया कर सकते हैं। वैक्रियिक शरीर को "विगूर्व शरीर" या "वैमूर्विक शरीर" भी कहते हैं। नोट ४ - वैक्रियिक शक्ति को सम्भा वना सर्व देवों, सर्व नारकियों और तपोबल द्वारा ऋद्धि प्राप्त किसी२ ऋषि मुनियों में तथा कुछ स्थूल तेजस कायिक और वायुकायिकः पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों में, कुछ संज्ञी पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में, भोगभूमिज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में, तथा कर्मभूमिज अर्द्धचक और चक्रवर्ती पद विभूषित पुरुषोंमें है । इनमें से देवों में पृथक् और अपृथक् दोनों, भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यचों में सथा कर्मभूमिज चक्री, अर्द्ध चक्रियों में पृथक्. और शेष में अपृथक-वैक्रियिक-शक्ति है । ( गो० जी० २३१, २३२, २५६ नोट ५ -- तपस्वियों को तपोबल से 'जब यह शक्ति प्राप्त होती है तो वह 'वैक्रियिक ऋद्धि' कहलाती है जो पृथकू और अप्रथक् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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