Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 317
________________ ( २५३ ) अड़तालास अन्तरद्वप वृहत् जैन शब्दार्णव अड़तालीस मतिज्ञान भेद है। यह फल यदि किसी कर्म के तीव्र उदय- | वाह्यतट पर धातकीखंडद्वीप के निकट रूप है तब तो किसी भी उपाय द्वारा बदल | सर्व २४ अन्तरद्वीप हैं ।। नहीं सकता। हां, जब मन्द उदयरूप होता (६) इस प्रकार सर्व मिल कर लवणहै तो योग्य और धार्मिक उपायों द्वारा परि- समुद्र में दोनों तटों के निकट ४८ अन्तरवर्तित हो सकता है, परन्तु ग्रहों के अनु- द्वीप हैं। ष्ठान आदि अयोग्य उपायों द्वारा नहीं। (त्रि. ६१३) नोट ४–फलित ज्योतिष के नियमों अड़तालीस अन्तरद्वीप ( कालोदकद्वारा जो त्रिकाल सम्बन्धी कुछ स्थूलशान समुद्र में )-लवणसमुद्र की समान का प्राप्त होता है यह ज्योतिष चक्र के निमित्त लोदकसमुद्र में भी उस के दोनों तटों के से होने के कारण निमित्तान' के आठ अङ्गों निकट अड़तालीस अन्तरद्वीप हैं। [ ऊपर में से एक अङ्ग गिना जाता है। इसी का देखो शब्द 'अड़तालीस अन्तरद्वीप (लवनाम 'अन्तरीक्ष निमित्तज्ञान' भी है । (नि समुद्र में ) ] ॥ मित्तज्ञान के आठ अङ्गों के नाम जानने के लिये पीछे देखो शब्द 'अङ्गप्रविष्टथ तज्ञान' अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाके १२वें अङ्ग 'दृष्टिवादाङ्ग' के भेद 'पूर्वगत' __ अघतार क्रिया आदि उपयोगिता क्रिया में १०वाँ विद्यानुवादपूर्व, पृ० १२७ ) ।। पर्यन्त ८ विशेष क्रिया और उपनीति | अड़तालीस अन्तरद्वीप (लवणसमुद्र आदि अनिवृति पर्यन्त ४० साधारण | क्रिया । ( इन का विवरण जानने के में)-इन अन्तर द्वीपों का विवरण निम्न लिये पीछे देखो शब्द 'अगूनिवृति क्रिया' प्रकार है: का नोट ३. पृ० ७१ )। (१) लवणसमुद्र की ४ दिशाओं में ४, और ४ विदिशाओं में ४, एवम् सर्व ८ अड़तालीस प्रशस्तकर्मप्रकृति__ (२) चारों दिशाओं और चारों विदि. | पीछे देखो शब्द “अघातियो कर्म" का शाओं के मध्य की = अन्तर दिशाओं में - नोट = पृ० ८४ । ___ (३) हिभवन कुलाचल, शिखरी कुला- अडतालीस मतिज्ञान भेद- मतिचल, भरतक्षेत्र का वैताढ्य पर्वत (विजयार्द्ध पर्वत ), और ऐरावतक्षेत्र का वैता ज्ञान के मूल भेद अवग्रह, ईहा, अवाय, व्य पर्वत, इन चारों पर्वतों के दोनों अ धारणा,यह ४ हैं। इनमें से प्रत्येकके विषयन्तिम किनारों के निकट लवणसमुद्र में दो भूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि १२, भेद दो अन्तरद्वीप, एवम् सर्व रूप होने से मतिज्ञान १२ गुणित ४ अर्थात् (४) उपरोक्त प्रकार लवणसमुद्र के ४८ भेद रूप है । ( पीछे देखो शब्द “अअभ्यन्तर तट पर जम्बूद्वीप के निकट सर्व ट्ठाईस मतिज्ञान भेद" के नोट १, २, ३, २४ अन्तरद्वीप हैं। पृ० २२५)॥ (५) उपरोक्त प्रकार लषणसमुद्र के (गो० जी० ३१३) | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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