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( २५६ )
अढाईद्वीप
बृहत् जैन शब्दार्णव
क्षेत्रों में
पांचों भरत और पांचों ऐरावत से प्रत्येक क्षेत्र एक एक आर्यखंड और पांच पांच म्लेच्छखंडों में विभाजित है ॥
इस प्रकार यह ३५ क्षेत्र हैं जिन में पांचों विदेहक्षेत्र कर्मभूमि के क्षेत्र हैं । इन में अवसर्पिणी को अपेक्षा सदैव दुःषमसुषम नामक चतुर्थकाल (या उत्सर्पिणी की अपेक्षा तृतीयकाल) वर्तता है | पांचों भरत और पत्र ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखंडों में कुछ समय तक तो उत्तम, मध्यम, जघन्य मोगभूमि सम्बन्धी सुपमसुषम, सुषम, सु
दुःषमं, यह अवसर्पिणीकी अपेक्षा प्रथम ● द्वितीय और तृतीय काल ( या उत्सर्पिणी की अपेक्षा चतुर्थ, पंचम, षष्ठम काल) क्रम से वर्तते हैं और कुछ समय तक कर्मभूमि सम्बन्धी दुःषम सुषम, दुःषम, दुःषम दुःषम यह अवसर्पिणी की अपेक्षा चतुर्थ, पंचम, और षष्ठम काल[या उत्सर्पिणी की अपेक्षा प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल ] क्रम से वर्तते हैं। और इन दोनों क्षेत्रों के पांच पांच म्लेच्छ खण्डों तथा विजयाद्ध पर्वतों की श्र ेणियों में केवल दुःषमसुषम काल ही अपनी आदि अवस्था से अन्न अवस्था तक हानि वृद्धि सहित वर्तता है । शेष २० क्षेत्र भोगभूमि के हैं जिनमें से पाँचों हैमवत और पाँचों हैरण्यवत तो जघन्य भोगभूमि के क्षेत्र हैं। इनमें अवसर्पिणी की अपेक्षा सदैव तृतीयकाल सुषमदुःषम नामक वर्तता है । और पाँचों हरि व पाँचों क मध्यमभोगभूमि के क्षेत्र हैं । इनमें अवसर्पिणी की अपेक्षा सुक्ष्म नामक द्वितीय काल सदैव वर्तता है ।
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इस प्रकार ३५ महाक्षेत्रों में से २० क्षत्र अखंड भोगभूमि के, ५ क्षेत्र अखण्ड
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अढाईद्वीप
कर्मभूमिके और शेष १० क्षेत्र उभय प्रकार
के हैं।
त्रि०गा० ५६४, ६५३, ६६५, ७७९, ८८२, ८८३
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३. उपरोक्त ३५ महाक्षेत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक मेरु के निकट उसकी दक्षिण दिशा में देवकुरु और उत्तर दिशा में उत्तरकुरु नामक क्ष ेत्र उत्तमभोगभूमि के क्षेत्र हैं। जहां अवसर्पिणी की अपेक्षा सदैव प्रथम काल सुषमसुषम नामक वर्तता है । अर्थात् पांचों मेरु सम्बन्धी ५ देवकुरु और ५ उत्तरकुरु यह १० क्षेत्र उत्तमभोगभूमि के हैं।
इस प्रकार अढाईद्वीप में सर्व ४५ क्षेत्र हैं जिन में से ३० क्षेत्र नित्य-भोगभूमि के, ५ क्षेत्र नित्य कर्मभूमि के, और शेष १० क्षेत्र अनित्यमवर्ती भोगभूमि और कर्मदोनों के हैं।
( क्रि० ६५३ ) ४. भोगभूमि के क्षेत्रों में कल्पवृक्ष १० प्रकार के होते हैं - ( १ ) तूग ( २ ) पात्रांग (३) भूषणांग ( ४ ) पानांग (५) आहारंग (६) उपाङ्ग ( ७ ) ज्योतिराङ्ग (८) गृहांग ( 8 ) बलांग (१०) दीपांग ॥ ( त्रि. गा. ७८७ )
५. महावन १५
( १ ) प्रत्येक मेरु के निकट उस के चौगिर्द भद्रशाल वन है. जो पूर्व में सीता नदी से और पश्चिम में सीतोदा नदी से दो दो भागों में विभाजित है । अतः पाँचों मेरु सम्बन्धी ५ भद्रशालवन हैं ।
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( २ ) प्रत्येक मेरु की पूर्व दिशा में पूर्व-देवारण्य या भूतारण्यवन और पश्चिम दिशा में पश्चिम-भूतारण्य या देदारण्य
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