Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 311
________________ ( २४७ ) अठारहसहस्र मैथुनकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव अठारहसहस्र मैथुनकर्म ब्रह्मचर्य अत को पूर्ण रीति से सर्व प्रकार, कर्म मन, वचन, काय, इन तीनों योगों निर्दोष पालन करने के लिये जिन १८००० द्वारा हो सकने से इसके ३ गुणित ५०० प्रकार के मैथुन या व्यभिचार या कुशील अर्थात् १५०० भेद हैं। से बचने की आवश्यका है उनका विवरण निम्न प्रकार है: ५. उपरोक्त १५०० प्रकार का मैथुन१. मैथनकर्म के मूल भेद १० हैं(१)वि कर्म कृत, कारित, अनुमोदित, इन तीन षयाभिलाषा या विषय-संकल्प-विकल्प (२) प्रकार से हो सकने से इस के ३ गुणित वस्तिविमोक्ष या वीर्य स्खलन या शुक्रक्ष १५०० अर्थात् ४५०० भेद हैं। रण या लिङ्गविकार.(३) प्रणीत रस सेवन ६. यह ४५०० प्रकार का मैथुनकर्म या वृष्याहार सेवन या शुक्रवृद्धिकर-आ जात और स्पल, इन दोनों ही अब हार गृहण (४) संसक्त द्रव्य सेवन या स्थाओं में हो सकने से २ गुणित ४५०० सम्बन्धित द्रव्य सेवन (५) इन्द्रियाव अर्थात् ६००० भेद हैं॥ लोकन या शरीराङ्गोपाङ्गावलोने (६) प्रे ७. यह नौ सहन प्रकार का मैथुन कर्म मी सत्कार पुरस्कार (७) शरीरसंस्कार चेतन और अचेतन, इन दोनों ही प्रकार (E) अतीतस्मरण या पूर्वानुभोग सम्भोग की स्त्रियों के साथ हो सकने से इस के स्मरण (E) अनागत भोगाविलाष (१०) १००० का दुगुण १८००० (अठारह सहन) इष्टविषसेवन या प्रेमीसंसर्ग ॥ भेद हैं। २. उपरोक्त १० प्रकार में से प्रत्येक प्रकार का मैथुनकर्म कामचेष्ठा या काम- नोट १.-अगले पृष्ठ पर दिये प्रस्तार की विकार की निम्न लिखित १० अवस्थाओं सहायता से अथवा बिना सहायता ही मैथन। या १० वेगों को उत्पन्न करने की संभा- के सर्व भेदों के अलग अलग नाम या नष्ट वना रखने से १०० (१०x१० = १००) उद्दिष्ट लाने और प्रस्तार बनाने आदि की प्रकार का है:-- रीति जानने के लिये पीछे देखो शब्द 'अजी___ (१) चिन्ता (२) द्रष्टुमिच्छा या दर्श- वगतहिंसा' और उस के सर्व नोट, पृ० १९३नेच्छा (३) दीर्घनिश्वास (४) ज्वर (५) दाह (६) अशनारुचि (७) मूर्छा (८) | नोट २.-पुरुष का मैथुन कर्म उपरोक्त दो प्रकार की स्त्री के साथ होने से इस के उन्माद (E) प्राणसंदेह या जीवनसंदेह १८००० भेदहैं इसी प्रकार स्त्री का भी दो प्रकार (१०) मरण । के पुरुष के साथ मैथुन कर्म हो सकने से इस ३. उपरोक्त १०० प्रकार का मैथुन | | के अठारह हज़ार भेद हैं। स्पर्शन आदि ५ इन्द्रियों में से प्रत्येक के वशीभूत होने से हो सकता है। अतः | | गोट३--मैथुन कर्म के उपरोक्त १८ सहन इस के ५ गुणित १०० अर्थात् ५०० भेद | भेदों के सम्पूर्ण अलग अलग नाम या मष्ट | उद्दिष्ट लाने के लिये नीचे दिये प्रस्तार से स४. उपरोक्त ५०० प्रकार का मैथुन- हायता लें:-- हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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