________________
( २४६ ) अठारह श्रेणीपति
वृहत् जैन शब्दार्णव अठारहसहस्र मैथुनकर्म | अठारह श्रेणीपति-अठारह श्रेणी का
रङ्गार, रणरेज़, रङ्गसाज छीपी, चित्र- |
कार आदि। नायक एक मुकुटधारी राजा । ( ऊपर
___२. अस्पृश्य कारु १-चर्मकार देखो शब्द "अठारह-श्रेणी")
अर्थात् चमार या मोचा आदि । नोट-५०० मुकुटबन्ध राजाओं के
(२) अकार के ९ भेद.स्वामी को "अधिराज", १००० मुकुटवन्ध राजाओं के स्वामी को "महाराजा", २०००
१. स्पृश्य अकारु ७--(१)। मुकुटबन्ध राजाओं के स्वामी को "अर्द्ध
नापित अर्थात् नाई (२) रजक अमंडलीक", ४००० मुकुटवन्ध राजाओं के
र्थात् धोबी (३) शवर अर्थात् भील अधिपति को "मंडलीक" या "मंडलेश्वर'',
आदि (४) उद्यानप अर्थात् माली या ८०००मुकुटबन्ध राजाओं के अधिपति को
काछी आदि(५)अहीर अर्थात् आभीर, "महामंडलीक", १६००० मुकुटबन्ध राजाओं
गोप या ग्वाला आदि (६) वाद्यकर के अधिपति को “अद्धचक्री" या "त्रिखंडी"
अर्थात् वजन्त्री (७) कत्थक या गन्धर्व और ३२००० मुकुटबन्ध राजाओंके अधिपति
अर्थात् गायक या गवैया, नृतक या | को "चक्री" या "चक्रवर्ती" कहते हैं ।
नत्यकार आदि
(त्रि० ६८५) २. अस्पृश्य अकार २-(१) श्वपच अठारह श्रेणी शूद्र-शद्र वर्ण के मुख्य
या श्वपाक अर्थात् भङ्गी (२) बधक
अर्थात् व्याध, मछेरा, धीवर, पासी, भेद दो हैं (१) कार (३) अकारु या नारु ।
जल्लाद,चांडाल, कंजर आदि ॥ . इनमें से प्रत्येक के सामान्य भेद दो दो
नोट १--इन १८ श्रेणी शूद्रों की और विशेष भेद नव २ निम्नलिखित हैं
| उपजातियां अनेक हैं। अर्थात् ६ श्रेणी कारु और ९ श्रेणी
नोट२-किसी प्रकार की शिल्पकारी, अकारु या नारु, एवम् सर्व १८ श्रेणी
हस्तकला, कारीगरी या दस्तकारी के कार्य शूद्रों को है :--
करने वाले 'कार' कहलाते हैं। और जो (१) कारु के भेद.
कारु नहीं हैं बे सर्व अकार हैं। १. स्पृश्य कारु ८-- (१) कुम्भकार अर्थात् कुम्हार (२)
अठारहसहस्रपदविहितआचाराङ्गभूषणकार अर्थात् सुनार, जडिया
अङ्गप्रविष्ट श्र तज्ञान के १३ भेदों अर्थात् भादि (३) धातुकार अर्थात् लुहार,
द्वादशाङ्गों में से एक अङ्ग, अर्थात् द्वाद कंसकार या कसेरा आदि (४)पटकार
शांग जिनवाणी का प्रथम अङ्ग जो अर्थात् कोली या कौलिक (५) सूची.
१८००० मध्यम पदों में वर्णित है। (पीछे कार अर्थात् दर्जी (६) काष्ठकार अ
देखो शब्द 'अङ्गप्रविष्ट-श्रु तज्ञान',पृष्ठ११९) र्थात् स्थपति या बढ़ई, खाती आदि
(गो० जी० ३५६, ३५७) (७) लेपकार अर्थात् लेपक या थवई, भठारहसहस्र मैथुनकर्म-( अठारह राज या मेमार (८) रङ्गकार अर्थात् | सहसू कुशील या व्यभिचार भेद )-- !
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org