________________
अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित नहीं रखा । इनके शासन काल में प्रजा सर्व अगले दिन माघ शु०९ को प्रातःकाल प्रकारसे सुखी धर्मज्ञ और षट कर्म परायण ही अपने प्रियपुत्र 'अजितसेन' को राज्यथी। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों भार सौंप कर अपरान्ह काल, रोहिणी पुरुषार्थों का यथायोग्य रीति से निर्विघ्न नक्षत्र में जबकि तिथि १० का प्रारम्भ हो साधन करती थी। सागार और नागार चका था 'सुप्रभा' नामक दिव्य शिविका धर्म अर्थात् गृहस्थ और मुनि धर्म दोनों (पालकी) में आरूढ़ हो अयोध्यापुरी ही सर्वांश सुव्यवस्थित नियमानुकूल (विनीता पुरी वा साकेतानगरी ) के वापालन किये जाते थे।
हर सहेतुक ( सहस्रान) नामक बन में १०. जब आयु में एक पूर्वाङ्ग कम पहुँचकर और विषमच्छद अर्थात् सप्तछद एक लक्ष पूर्व और एक मास २६ दिन । या सप्तपर्ण वृक्ष ( सतौने का पेड़) के नीचे शेष रहे तव माघ शु० ८ की रात्रि को षष्ठोपवास (बेला, द्वला) का नियम 'उल्कापात' अवलोकन कर क्षणक सांसा- लेकर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। रिक विभव से एक दम विरक्त हो गये। इसी समय इन्हें चतुर्थ ज्ञान अर्थात् 'मन:भर भोजन खाते पीते रहने पर भी प्रायः प्रत्येक तीन तीन, चार चार दिवश में निहार अर्थात् मल त्याग की आवश्यकता पड़ती है। इस के अतिरिक्त तीन व्यक्ति ऐसे देखने और कई एक के सम्बन्ध में सुनने का अवसर मिला है जिनकी प्रकृति आठ आठ दश दश या ग्यारह ग्यारह दिवश के पश्चात् निहार करने की थी। इनमें से एक दो के सम्बन्धमे ऐसा भी देखने और सुनने में आया कि उनके पसीने में तथा मख में कछ विशेष प्रकार को दर्गन्धि भी आती थी। शेष व्यक्ति सर्व प्रकार से निरोग और स्वस्थ्य थे॥ . चरक आदि पैद्यक ग्रन्थों से यह भी पता लगता है कि 'भस्मकव्याधि' नामक एक रोग भी ऐसा होता है जिस का रोगी चाहे जितना भोजन करै वह सर्व ही मल नहीं बनता किंतु उदर में पहुँचते ही भस्म होकर अदृश्य हो जाता है जिससे ऐसा रोगी क्षधा से हर दम बेचैन रहता है । यह रोग कफ़ के अत्यन्त कम हो जाने और वात पित्त के बढ़ जाने से जठराग्नि तीव्र होकर उत्पन्न हो जाता है । इसे अङ्गरेजो भाषा में बूलीमूस ( Bulimus ), अरबी भाषा में 'जाउलबक' और उर्द भाषा में 'भाल का होका' बोलते है ॥
उपयुक्त कथन से निःसंकोच यह तो प्रतीत हो ही जाता है कि ग्रहण किये हुए स्थूल भोजन का भी असार भाग स्थल मल बन कर किसी न किसी अन्य सूक्ष्म और अदृश्य रूप में परिवर्तित होकर शरीर से निकल जा सकता है। अतः जब साधारण व्यक्तियों के सम्बन्ध में स्थूल और गरिष्ट आदि सर्व प्रकार का अधिक भोजन करते हुए भी किसी न किसी विशेष कारण से उनके शरीर में स्थल मल न बनने की सम्भावना हैती दिव्यशक्तियुक्त महा पुण्याधिकारी असाधार पुरुषों का विशुद्ध सूक्ष्म और अल्प आहार मलमूत्रादिक रूप में न पारवर्तित होना कैसे असम्भव हो सकता है। यहां इतना विशेष है कि साधारण व्यक्तियों के शरीर में तो आहार का असार भाग (खलभाग) स्थल या सूक्ष्म मल के रूप में अवश्य परिवर्तित होता और किसी न किसी मार्ग से शीघ्र या अशीघ्र कभी न कभी निकल जाता है परन्तु तीर्थङ्कर जैसे असाधारण व्यक्तियों का प्रथम तो आहार ही ऐसा विशुद्ध होता है जिस में असार भाग नहीं होता, द्वितीय उन के शरीर की जठराग्नि तथा अग्न्याशय,. पाकाशय आदि अभी असाधारण होते हैं जो आहार को सर्वाङ्ग रस में परिपर्तित कर के खल भोग शेष नहीं छोड़ते ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org