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(२३१ ) अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां
४. मोहनी कर्मप्रकृति :--( १३-१६)। नोट १--उत्तर कर्मप्रकृतियां ज्ञानावसंग्वलन क्रोध मान माया लोभ (१७) रणी की ५, दर्शनावरणी की है। घेदनीय की हास्य (१८) रति ( १६) भय (२०) | २, मोहनीय की २८, नामकर्म की ९३ [ या जुगुप्सा (२१) पुरुषवेद ।
१०३], गोत्र कर्म की २, आयुकर्म की ४ और ___५. नामकर्म प्रकृति ३१--(२३) देव- | अन्तराय कर्म की ५, एवम् सर्व १४८ [ या गति ( २३) पंचेन्द्रिय जाति ( २४ ) वैक्रि- | १५८] हैं। परन्तु अभेद विवक्षा से नामकर्म यिक शरीर ( २५ ) आहारक शरीर ( २६) की ९३ या १०३ के स्थान में केवल ६७ ही हैं। तैजस शरीर ( २७ ) कार्माण शरीर (२८) अतः अभेद विवक्षा से सर्व उत्तरकर्मप्रकसमचतुरस्र संस्थान ( २६ ) वैक्रियिक- तियां १२२ ही हैं जिन में से दर्शन मोहनीय आङ्गोपांग (३०)आहारक-आङ्गोपांग (३१) | की सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व वर्ण ( ३२ ) गन्ध (३३) रस (३४) स्पर्श [मिश्र] प्रकृति, इन दो को छोड़ कर शेष १२० (३५) देवगत्यानुपूर्व्य ( ३६) अगुरु- प्रकृतियां ही बन्ध योग्य हैं । इन्ही १२० लघु (३७) उपघात (३८ ) परघात प्रकृतियों में से उपयुक्त ५८ प्रकृतियां अष्टम( ३६ ) उच्छ्वास (४०) प्रशस्त विहा- गुणस्थान में बन्ध योग्य हैं। [ पीछे देखो योगति (४१) प्रस (४२) बादर ( ४३) शब्द 'अघातिया कर्म' और उसका नोट ३, पर्याप्ति (४४) प्रत्येक शरीर ( ४५ ) पृ० ८२ ]। स्थिर (४६) शुभ ( ४७) सुभग (४८ ) नोट २-अष्टम गुणस्थान में उपर्युक्ता सुस्वर (४६) आदेय (५०) यशस्कीर्ति ५८ बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियों में से ३६ की (५१) निर्माण (५२) तीर्थङ्कर । बन्ध व्युच्छित्ति ( बन्ध का अन्त अर्थात् ६. गोत्र कर्मप्रकृति १ --(५३) उच्च- आगे के गुणस्थानों में बन्ध का अभाव)
इसी अष्टम गुणस्थान में, ५ की नवम गुण____७. अन्तराय कर्मप्रकृति ५--(५४) स्थान में, १६ की दशमगुणस्थान में, और दानान्तराय ( ५५ ) लाभान्तराय (५६) शेष १ की तेरहें गुणस्थान में निम्न प्रकार से भोगान्तराय [ ५७ ] उपभोगान्तराय[५८] | होती है:-- वीर्यान्तराय।
(१) अष्टम गुणस्थान की काल इस प्रकार [१] ज्ञानावरणी[२]दर्शना- मर्यादा के सात भागों में से प्रथम भान में वरणी [३] वेदनीय [४] मोहनीय [५] | | २ को [ न० १०, ११ की अर्थात् निद्रा और नाम [६] गोत्र [७] अन्तराय, इन सात प्रचला दर्शनावरणीकर्मप्रकृतियों की ], छटे मूल कर्मप्रकृतियों की क्रम से ५, ६, १, भाग के अन्त में ३० को [ न० २२ से ९, ३१, १,५, एवम् सर्व ५८ उत्तरप्रकृतियां ४९ तक और ५१, ५२ की ], और अन्तिम अष्टम गुणस्थान में बन्ध योग्य हैं । इस | सातवें भाग में शेष ४ की [नं० १७ से २० गुणस्थान में आयुकर्म का बन्ध नहीं होता तक की ], एवम् ३६ की बन्धव्युच्छित्ति हो अतः आयुकर्म की चारों प्रकृतियों में से | | जाती है। एक भी बन्ध योग्य नहीं है।
(२) नवम गुणस्थान की काल मर्यादा |
गोत्र
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