Book Title: Hindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Author(s): B L Jain
Publisher: B L Jain

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Page 266
________________ १ २०२ अजीधगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव 'अजीवगत हिंसा नष्ट या उद्दिष्ट किया की विधि निम्न | नाम ज्ञात हो जायगा। लिखित है उदाहरण-जोधगत हिंसा के ४३२ १. नष्ट की विधि-किसी पदार्थ आदि भेदों में से ४००वां भेद (आलाप)कौनसा है ? के सर्व भेदों या आलापों में से जेथवां आलाप ___ यहां प्रथम पिंड संरम्भजन्य हिंसा आदि जानना अभीष्ट हो उस आलाप की शात संख्या को प्रथम पिंड की गणना (पिंड के की गणना ३, द्वितीय पिंड मानसिक आदि भेदों या अङ्गों की गणना ) का भाग की गणना ३, तृतीय पिंड स्वकृत आदि की देने से जो अवशेर रहे यही इस पिंड का गणमा ३, चतुर्थ पिंड क्रोध आदि की गणना अक्षस्थान है । यदि अवशेष कुछ न बचे तो ४, और पंचम पिंड अनन्तानुबन्धी आदि की इस पिंड का अन्तिम भेद अक्ष स्थान है।। गणना ४ है जिनके परस्पर के गुणन करने से - फिर मजनकल (भाग का उत्तर ) में १ जीवगत हिंसा के विशेष भेदों की संख्या जोड़कर जोड़फल को या भाग देने में शेष | | ४३२ प्राप्त होती है । इन में से ४०० वें भेद का कुछ न बचा हो तो कुछ न जोड़कर भजनफल | नाम जानना अभीष्ट है । अब उपयुक्त ही को द्वितीय पिंड की गणना का भाग | विधि के अनुसार ४०० को प्रथम पिंड की दैने से जो शेष बचे वही इस द्वितीय पिंड का गणना ३ का भाग देने से १३३ भजनफल अक्ष-स्णन है । अवशेष कुछ न बचे तो प्राप्त हुआ और १ शेष रहा। अतः प्रथम अन्तिम भेद अक्ष-स्थान है। पिंड में पहिला भेद अक्ष-स्थान है जिसका इसी प्रकार जितने पिंड हो उतनी अक्ष संरम्भजन्य हिंसा' है। वार कूम से हर पिंड को गणना अब भजनफल १३३ में १ जोड़ कर पर भाग दे देकर जो शेष बचे उसे या शेष जोड़फल १३४ को द्वितीय पिंड की गणना न बचे तो अन्तिम भेद को अक्ष-स्थान जाने ३ का भाग देने से ४४ भजनफल प्राप्त हुआ और जो भजनं फल हो उसमें १ जोड़ कर और २ शेष रहा । अतः द्वितीय पिंड में जोड़फल को या भाग देने में शेष कुछ न दूसरा भेद अक्षस्थान है जिस का अक्ष बचा हो तो बिना १ जोड़े ही भजनफल को | 'वाचनिक' है। अगले अगले पिंड की गणना पर भाग देते अब मजनफल ४४ में १ जोड़ कर ४५ रहें । जहां कहीं भाजक से भाज्य छोटा हो को तृतीय पिंड की गणना ३ का भाग देने से वहां भाज्य ही को अक्ष-स्थान जाने । और १५ भजनफल प्राप्त हुआ और शेष कुछ नहीं भजनफल (शन्य ) में उपयुक्त विधि के बचा। अतः तृतीय पिंड में अन्तिम भेद अक्ष अनुकूल १ जोड़ जिससे अगले अगले पिंडोंमें स्थान है जिस का अक्ष 'अनुमोदित' है। प्रथम स्थान ही अक्ष स्थान प्राप्त होगा। अब म समफल १५ में कुछ न जोड़कर ____ अब सर्व अक्ष-स्थानों के अक्षों को विलोम इसे चतुर्थ पिंड की गणना ४ का भाग देने से कम से रख लैने पर अर्थात् अन्त में प्राप्त हुए भजनफल प्राप्त हुआ और ३ ही शेष बचे। अक्षस्थान के अन्त से प्रारम्भ करके प्रथम अतः चतुर्थ पिंड में तीसरा भेद अक्षस्थान है। प्राप्त हुए अक्षस्थान के अक्ष तक सर्व अक्षों जिसका अक्ष 'मायावश' है। - को कम स रख लैने पर अभीष्ट आलाप का | अब भमलफल ३ में एक जोड़ कर PPORTANT Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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