________________
( १६२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवकाय असमारम्भ
अजीव वस्तुओं का उपयोग करने से होने वाली हिंसा । ( अ.मा. 'अजीवकाय असं
.
जम' )॥
अजीव काय असमारम्भ-वस्त्र, पात्र
आदि अजीव वस्तुओं को उठाने धरते किसी प्राणी को दुःख न देना । ( अ. मा. 'अजीव काय असमारंभ' ) ॥ अजीव काय आरम्भ - वस्त्र पात्रादि उठाते रखने किसी प्राणी को दुःख देना (अ. मा. 'अजीवकाय आरंभ' ) ॥ अजीव काय - संयम-वस्त्र. पात्र, पु. स्तक आदि उठाते रखते यत्नाचार रा कि किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचे। (अ. मा. 'अजीव काय-संजम' ) ॥ जीवक्रिया - अजीव का व्यापार पुद्गल समूह का ईर्यापथिक बन्ध, या सांप्रायिकबन्ध रूप से परिणमना; हरियावहिया और सांपरायिकी, इन दोनों क्रियाओं में से एक (अ.मा. 'अजीव किंरिया') ॥
अजीगत हिंसा - अजीवाधिकरण हिंसा. किसी अजीव पदार्थ के आधार से होने वाली हिंसा, पौद्गलिक द्रश्य के आवार से होने वाली हिंसा ॥
T
आवार अपेक्षा हिंसा दो प्रकार की है -- (१) जीवगत हिंसा या जीवाधिकरण हिंसा और (२) अजीवगत हिंसा या अजीकिरण हिंसा । इनमें से दूसरी अजीव गत हिंसा या अजीवाधिकरण-हिंसा के मूल भेद ४ और उत्तर भेद११ निम्न प्रकार हैं : :१. निक्षेपाधिकरण हिंसा - - (१) सहसा निक्षेपाधिकरण हिंसा (२) अनाभोग निक्षेपाधि करण हिंसा (३) दुःप्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण
Jain Education International
अजीवगत हिंसा
हिंसा (४) अप्रत्त्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण हिंसा;
२. निर्वर्तनाधिकरण हिंसा-- (१) देहदुः प्रयुक्त निर्वर्तनाधिकरण हिंसा (२) उपकरण निर्वर्तनाधिकरण हिंसा;
३. संयोजनाधिकरण हिंसा -- (१) उपकरण संयोजनाधिकरण हिंसा ( २ ) भक्तपानसंयोजनाधिकरण हिंसा;
४. निसर्गाधिकरण हिंसा - (१) काय निसर्गाधिकरण हिंसा (२) वाकू निसर्गाधिकरण हिंसा (३) मनो निसर्गाधिकरण हिंसा || ( प्रत्येक का लक्षण स्वरूपादि यथा स्थान देखें ) !!
( भगवती अ० सार गा० ८०६ - ८१४ ) नोट१. - प्रमादवश अपने व परके अथवा क्षेत्रों के किसी एक या अधिक भावप्राण या द्रव्यप्राण या उभयप्राणों का व्यपरोपण करना अर्थात् घाना या छेदना 'हिंसा' है ॥
( तत्त्वार्थ सूत्र अ० ७ सू० १३) नोट २. -- स्वरूप की असावधानता या मनकी अनवधानता का नाम प्रमाद' है । इस
के मूल भेद कपाय, विकथा, इन्द्रिय विषय, निद्रा और स्नेह, यह ५ हैं । इनके उत्तर भेद क्रम से ४,४,५,९,१ एवम् सर्व १५ हैं और विशेष भेद ८० तथा ३७५०० हैं । इनका अलग २ विवरण जानने के लिये देखो शब्द 'प्रमाद' ॥
नोट ३. - जिनके द्वारा या जिनके सद्भाव में जीव में जीवितपने का व्यवहार किया जाय उन्हें 'प्राण' कहते हैं । इनके निम्न लिखित सामान्य भेद ४ और विशेष भेद १० हैं : --
१. इन्द्रिय-- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु,
श्रोत्र;
२. बल - - मनोबल, वचनबल, काय बल;
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org