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अजीवगत हिंसा
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा
जीगत हिंसा के ४३२ भेदों का द्वितीय प्रस्तार ।
। द्वितीय प.क्त । तृतीय पक्ति
चतुर्थ पक्ति संरम्भजन्य हिंसा १ | मानसिक . स्वकृत . | अनन्तानुबन्धी कोधवश समारं नजन्य हिंसा२ वाचनिक ३ | कारित है। | अनन्तानुबन्धी मानवश आरम्भजन्यहिंसा ३' कायिक ६ अनुमोदित १८ अनन्तानुबन्धी मायावश
अनन्तानुबन्धी लोभवश · ८१ अप्रत्याख्यानावरणी-कोयवश १०% अप्रत्यास्यानावरण. मानवश १३५ अप्रत्याख्यानावरणी-मायावश१६२ अप्रत्याख्यानावरणी-लोभवश २८९ प्रत्याख्यानावरणी-धोधवश २९६ प्रत्याख्यानावरणी-मान वश २४३ प्रत्याख्यानाचरणी-मायावश २७० प्रत्याख्यानावरणा-लोभवश -२६७ स.वलन-क्रोधवश
३२४
स.वलन-मानवश
संज्वलन-मायावश
३७८
| सं.वलन-लोभवश , ४०५ उदाहरण---जीधगत हिंसा के ४३२ संरम्भजन्य-हिंसा', यह ४०० वां भेद है। भेदों में से ४०० वें भेद का क्या नाम है।
उत्तर द्वितीय प्रस्तार की सहायता उत्तर प्रथम प्रस्तार की सहायता से- से-पूर्वोक्त नियमानुसार चौथी पंक्ति से १०८ भेदों वाले प्रस्तार के साथ बताई हुई ३७८ ( संघलन मायावश), तीसरी पक्ति से विधि के नियमों के अनुसार प्रञ्चम पंकि से १८ (अनुमोदित), दूसरी पक्ति से ३ (वाच३२४ ( संज्वलन ), चौथी पंक्ति से ५४.(माथा | | निक), और पहली पक्ति से १ (संरम्भ-जन्य वश ), तृतीयपंक्ति से १८ (अनुमोदित), | हिंसा), यह अङ्क लेने से इन का जोड़४०० है। द्वितीय पंक्ति से ३ ( वाचनिक), प्रथम पंक्ति अतः इन अङ्को के कोष्ठों में लिखे शब्द (अक्ष) से १ (संरम्भ जन्य हिंसा), यह अङ्क लेने से क्रमसे लिख लेने पर, 'संग्वलन-मायावश-अनुइन का जोड़ ४०० है । अतः इन अटों के मोदित-वाचनिक-संरम्भजन्य हिंसा', यह ४०० कोष्ठकों में लिखे शब्द ( अक्ष) क्रम से रखने वां भेद है जो प्रथम प्रस्तार की सहायता से पर "संज्वलन-मायावश-अनुमोदित-वाचनिक भी प्राप्त हुआ था। ..
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