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बृहत् जैन शब्दार्णव
अयोव्रत
(२) सत्य व्रतोपवास-७२ उपवास, ७२ पारणा, १ धारणा, सर्व १४५ दिन ॥ (३) अचौर्य प्रतोपवास-- ७२ उपवास, ७२ पारणा, १ धारणा, सर्व १४५ दिन (४) ब्रह्मखर्य प्रतोपवास-- १८० उपवास, १८० पारणा, १ धारणा, सर्व ३६१ दिन ॥ (५) परिप्रहत्याग या परिग्रहपरिमाण व्रतो पवास - २१६ उपवास, २१६ पारणा, १ धारणा, सर्व ४३३ दिन ॥
(६) रात्रिभुक्कित्याग व्रतोपवास-- १० उपवास, १० पारणा, १ धारणा, सर्व २१ दिन | (७) त्रिगुप्ति व्रतोपवास - २७ उपवास, २७ पारणा, १ धारणा, सर्व ५५ दिन ॥ (८) पञ्चसमिति व्रतोपवास -- ५३१ उपवास, ५३१ पारणा १ धारणा, सर्व १०६३ दिन !!
इन सर्व व्रतोपवासों का विवरण उम के वाचक शब्दों में से प्रत्येक शब्द की व्याख्या में यथास्थान देखें ॥
अचौर्याशुवत -पीछे देवो शब्द "अचौं
- अणुत ॥
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अच्छुत्ता नाथपुराण में जो कि ई० सन् १२०५ में ा गया है प्रशंसा की है । इससे स्पष्ट है कि यह ई०सन् १२०५ से पहिले होगया है और इसने अपने पूर्वकालीन कवियों की स्तुति करते समय "अग्गलकवि" की ओ कि ई० सन् १०८९ में हुआ है, प्रशंसा की है, इससे यह ई० सन् १०८९ के पीछे हुआ है। इसके सिवाय रेवण नामक सेनापति राजा कलचुरि का मंत्री था और शिला लेखों से मालूम होता है कि आहषमल्ल ( १९८१ - १९८३ ) के और नवीन हयशाल बंश के वीर वल्लाल ( ११ ७२ - १२१६ ) के समय में भी वह जीवित था । इससे इस कवि का समय ११९५ के लगभग निश्चित होता है । बर्द्धमान पुराण मैं महावीर तीर्थङ्कर का चरित है। इसमें १६ आश्वास हैं। इसकी रचना अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकारों से युक्त और प्रौढ़ है। इस कवि का और कोई ग्रन्थ नहीं मिलता ॥
( क. ४१ ) अच्चुतावतंसक -आगे देखो शब्द “अच्युत (६) " और "अच्युतावतंसक” अच्छ-निर्मल, मेरु पर्वत, एक आर्य देश, स्फटिक मणि ( अ. मा. ) ॥
अञ्चरण (आचण ) -- समय ई० सन् १९६५ | यह कवि भरद्वाज गोत्री जैन ब्राह्मण था । इसके पिता का नाम केशवराज, माता का मल्ल/म्बिका, गुरु का नन्दियोगीश्वर और ग्राम का पुरीकरनगर ( पुलगिर ) था। इसके पिता केशवराज ने और रेचण नाम के सैनापति ने जो कि बसुधैवान्धव के नाम से प्रसिद्ध था वर्द्धमान पुराण नाम प्रन्थ का प्रारम्भ किया था; परन्तु दुदैब से उनका शरीरान्त हो गया और तव उक्त प्रन्थ को आचरण ने समाप्त किया ।
अच्छवि-काययोग को रोकने वाला स्नातक, १४ वे गुणस्थानवर्ती साधु ॥ ( अ. मा. )
मच्छिद्र - छिद्ररहित; गोशाला के ६ दिशाचर साधुओं में से चौथा ( अ. मा. अच्छि ) ॥
इस कवि की पार्श्वकवि ने अपने पार्श्व | अच्छ्रुत्ता - २० वें तीर्थङ्कर श्री मुनिसुप्रत
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