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अजयपाल
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वृहत् जैन शब्दार्णव
एक विशाल दानशाला अपने नगर में खोली जिस की देख रेख का प्रबन्ध सेठ नेमिनाग' के सुपुत्र 'अभयकुमार श्रीमाली' को सौंपा
गया ।
(१०) स्वदारासन्तोष व्रत बड़ी दृढ़ता से पालन करने के कारण 'परनारी सहीदर', शरणागतपालक होने से 'शरणागतवजूपंजर', जीव दया का सर्वत्र प्रसार करने से 'जीवदाता', विचारशील होने से 'विचार चतुर्मुख', दीनों का उद्धार करने से 'दीनोद्धारक', और राज्यशासन करते हुए भी त्रिकाल देवपूजा, गुरुसेवा, शास्त्रश्रवण, इन्द्रियसंयम, धर्मप्रभावना आदि श्रावकोचित आवश्यक कार्यों में सदैव दत्तचित्त रहने से "राजर्षि" इत्यादि इसके कई यथा गुण तथा नाम प्रसिद्ध हो गए थे । इत्यादि ॥
सारांश यह कि इस के राज्य में सर्वत्र शांति का साम्राज्य था । प्रजा को सर्व प्रकार का सुख चैन और प्रसन्नता प्राप्त थी । मानो कलिदुष्ट को जीतकर सत्युग की जागृति ही कर दी थी ॥
नोट ३-जगडूशाह ( जगदृश ) नामक एक धनकुबेर जैनधर्मी वैश्य जो सदैव अपने अटूट धन का बहुभाग गुप्तदान में लगाता रहता था इसी 'कुमारपाल' के राज्य में कच्छ देश के 'महुवा' या 'भद्रेश्वर' नामक ग्राम; में रहता था। अपने धर्मगुरु 'श्री हेमचन्द्र जी सूरि', 'वाग्भट्ट' आदि सामन्त और मन्त्री, राज्यमान्य नगरसेठ का पुत्र 'आभट', षटभाषा चक्रवर्ती 'श्री देवपाल कवि', दानेश्वरों में अप्रगण्य "सिद्धपाल”, राज भंडारी "कपर्दि", पाटनपुरनरेश प्रह्लाद, ६६ लाख की पूंजी का धनी 'छाड़ाशेठ,' भाणेज 'प्रताप मलु', १८०० अन्य शेठ साहूकार, बहुत
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अजयपाल
सेवतीया अवती श्रावक और अगणित अन्यान्य जैन और अजैन, ११ लाख अश्व, ११ सहस्र हाथी, १८ लाख सर्व पयादे, इत्यादि ठाठ बाट के साथ इतने बड़े संघ का अधिपति बनकर जब कुमारपाल ने श्री शत्रुंजय आदि तीर्थस्थानों की यात्रार्थ प्रयाण किया तो शत्रुंजय, गिरिनार और देवपत्तन ( प्रभासपाटन), इन तीनों तीर्थों पर पूजा के समय इन्द्रमाल ( जयमाला ) की बोली सब से बढ़कर “जगडूशाह" ही की सवा सवा करोड़ रुपये की होकर इसी के नाम खतम हुई । ( कुमारपाल चरित ) ॥ 'कुमारपाल' की मृत्यु से लगभग ४० वर्ष पीछे जबकि गुजरात में अणहिल्ल पाटण की गद्दी पर इसी वंशका राजा बीसलदेव या विशालदेव राज्य कर रहा था, उत्तर तथा मध्य भारत में गोन्धार देश तक ५ वर्ष के लिये भारी दुषकाल पड़ा उस समय इसी "जगडूशाह" ने अपने अटूट धन से सर्व अकाल पीड़ितों की परम प्रशंसनीय और अद्वितीय सहायता की थी जिस का उल्लेख प्रांडिफ साहिब ने अपनी " मरहट्टा कथा" में किया है । तथा डाक्टर बूलर ने इस धनकुबेर की पूरी कथा को संस्कृत कथा के गुजराती अनुवाद से लेकर स्वयम् प्रकाशित कराया है। इसी का सारांश निम्न प्रकार है:--
सन् १२१३ ई० (वि. सं. १२७० ) में भारत वर्ष में भारी अकाल पड़ा । यह गुजरात, काठियावार, कछं, सिन्धु, मध्य देश और उत्तरीय पूर्वीय भारत में दूर तक फैला जो लगातार ५ वर्ष तक रहा । इस अकाल पीडित प्रान्तों के सर्ब ही राजे महाराजे उसे रोकने में कटिबद्ध थे तो भी लगातार पाँच
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