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अङ्गस्पर्शनदोष वृहत् जैन शब्दार्गव
अङ्गार करने के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावा- | प्रकार अन्तरंग तप का जो पांचवा भेद नुसार यथा योग्य प्रायश्चित् देने की विधि "व्युत्सर्ग' नामक तप है उसके अन्तर्गत आदि का सविस्तार निरूपण है।
"कायोत्सर्म तप'' सम्बन्धी ३२ दोषों में से । १०. कल्पाकल्प-इस प्रकीर्णक में। अन्तिम दोष का नाम "अंगस्पर्शन" या। दल्य, क्षेत्र, काल, भाय के अनुकूल सा- 'अंगामर्श (कायोत्सर्ग तप के समय शरीर | धुओं के लिये योग्य और अयोग्य दोनों के किसी अंगको छूना या मसलना) है ॥ प्रकार के आचार का वर्णन है।
नोट--कायोत्सर्ग के ३२ दोष यह है११. महाकल्प--इस प्रकीर्णक में उत्कृष्ट (१) घोटकपाद (२) लतावक (३) स्तंभाषभ संहनन आदि युक्त जिनकल्पी महा मुनियों (४) कुडियाश्रित (५) मालिकोबहन (६) के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुकूल शवरी गुह्य गृहन (७) खलित (८)लंवित उत्कृष्ट आचार, वृतचर्या, कायक्लेशतप- (२) उत्तरित (१०)स्तन दृष्टि (११) काकालोकन प्रतिमा योग, आतापन योग, अभ्रावकाश, (१२) खलीनित (१३) युगकन्धर (१४)। त्रिकालयोग--इत्यादि, तथा,स्थविरकल्पी | कपित्थ मुष्टि (१५) शीर्ष प्रकम्पित (१६)। मुनियोंकी दीक्षा, शिक्षा, संघ या गण- मूक संज्ञा (१७ )अंगुलि पालन (१८) भ्र क्षेप पोषण,यथा योग्य शरीर-समाधान या आ- (१६) उन्मत्त (२०) पिशाच (२१-२८) स्मसंस्कार, सल्लेखना, उत्कृष्ट स्थानगत | पूर्व, अग्नि, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, या उत्तमार्थ स्थान प्राप्ति, उत्तम आराधना | उत्तर, ईषान, यह अष्ट दिशावलोकन (२६)[ आदि का निरूपण है ।।
प्रीवोन्नमन (३०) प्रीवावनमन (३१) .. १२.पुण्डरीक--इस प्रकीर्णक में भवन-निष्ठीवन और ( ३२) अङ्गस्पर्शन ॥ वासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों (देखो शब्द" अंगुलिचालन दोष" और उस के विमानों में जन्म धारण करने के प्रथक | के नोट २, ३) . प्रथक कारणों--दान, पूजा, तप, संयम, अंगामर्शदोष-देखो शब्द “अङ्गपर्शनसम्यक्त, अकामनिर्जरा आदि-का विधान
दोष" तथा उन स्थानों के विभव आदिक का सविस्तार वर्णन है।
अंगार-(१) जलता हुआ कोयला या ल. १३. महापुण्डरीक-इस प्रकीर्णक में कड़ी का टकड़ाया उपलो लालरंग;रामभाध; इन्द्र प्रतीन्द्र और कल्पातीत विमानों के अ- 'आसक्तता या विषय-लम्पटता; मरकासुर॥ हिमिन्द्रादि महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होने के (२) मंगलवार; ४८ ग्रहों में से एक कारणभूत विशेष तपश्चरणादि का तथा प्रह का नाम जिसे मङ्गल, भौम, महीसुत, उनके विभव आदिका सविस्तार निरूपण है। कुज, अंगारक, लोहितांम भी कहते हैं। ११. निषिद्धिका-इस प्रकीर्णक में प्रमाद
(देखो शब्द 'अघ' का नोट ) जन्य दोषों के निराकरणार्थ अनेक प्रकार के (३) नभस्तिलकपुर के विद्याधर प्रायश्चित का पूर्णरूप से निरूपण है। राजा त्रिशिखर का एक पुत्र जो "श्रीकृष्ण प्रङ्गस्पर्शनदोष( अङ्गामर्श दोष)-छह चन्द्र" के पिताः 'वसुदेव' की एक 'मदन
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