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अचित
नोट - विकृत रहित आहारको 'निर्वि कृताहार' कहते हैं । जो जिह्वा (जीभ) और मन में विकार या चटोरपन या जिह्वा लम्पटता आदि अवगुण उत्पन्न करे उसे 'विकृत' कहते हैं । ऐसा विकृत भोजन ५ प्रकार का होता है(१) गोरस (२) इक्षुरस (३) फलरस (४) धान्य रस और (५) सर्व प्रकार के चटपटे मसालेदार या कामोह पक या अति स्वादिष्ट संयोगिक पदार्थ ॥
( १४२ )
वृहत् जैन शब्दाव
अति उष्ण-संवृतविवृत ) अचितक्रीत
नोट २ - मध्यान्ह ( दुपहर ) से कुछ देर पश्चात् शुद्ध अल्पाहार केवल एक बार ग्रहण करने को 'एकाशन' कहते हैं । पहिले और पिछले दिन 'एकाशन' और मध्य के एक दिन निराहार - (निर्जल ) रहने को एकोपवास कहते हैं । इसी का नाम 'चतुर्थक' भी है, क्यों कि इस व्रत में पूरे ३ दिन रात्रि में ६ बार के स्थान केवल दो बार भोजन ग्रहण किया जाने से चार बार के भोजन का त्याग हो जाता है । इसी प्रकार दो दिन निराहार (निर्जल ) रहने और पूर्व व उधर दिवशों में एक एक दिन एकाशना करनेको 'वेला' (द्व ेला) कहते हैं जिस में पूर्वोक्त रीति से छह बार का आहार त्याग हो जाने के कारण उसे 'षण्ठक' भी कहते हैं । ऐसे ही तीन दिन निराहार और पूर्वोत्तर दिन एक एक 'एकाशन' करने को 'तेला' (त्रेला ) या 'अष्टम' कहते हैं ॥ अचित-चितरहित अर्थात् चैतन्य या चेतना या जीव प्रदेश रहित, निर्जीव, प्राशुक ॥
चित-उष्ण-वित
अचित-उष्ण-संवृत
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अचितजल
(१)
कारण घी, दुग्ध, गुड़, शक्कर, वस्त्र, भाजन, भूषण, आदि कोई अधित द्रव्य बेचकर या बदले में देकर मोल लिया हुआ कोई पदार्थ | अतिक्रीतदोष ( अचितद्रव्य क्रीतदोष ). - मुनियों के आहार या वसतिका ( वस्तव्य स्थान, वसने योग्य या ठहरने योग्य कोई मकान ) सम्बन्धी १६ प्रकार के "उगम दोषों में से एक "की" नामक दोष का एक भेद जो अचित क्रीत सामग्री से बना हुआ आहार या वसतिका ग्रहण करने से किसी निथ साधुको लगता है। नोट - १६ प्रकार के उद्गम दोष यह हैंऔद्देशिक, (२) अध्यधि (३) पूति (४) मिश्र ( ५ ) स्थापित (६) बलि (७) प्रावर्तित ( प्राभृतक ) (=) प्राविधकरण (प्रादुकार ) (E) क्रीत (१०) प्रामृष्य (११) परिवर्तक (१२) अभिघट (१३) उद्भिन्न (१४) मालारोहण (१५) अच्छेय (१६) अनिसृष्ट (अनीषार्थ ) ॥ इन १६ में से नवें " क्रीतदोष" के दो भेद द्रव्यक्रीत और भावकीत हैं जिन में से 'द्रव्यक्रीत' दोष के भी दो भेद, सचितद्रव्यक्रीत दोष और अचितद्रव्यक्रीत दोष हैं, अर्थात् क्रीतदोष के सर्व तीन भेद (१) सचितद्रव्यकत दोष या सचितक्रीत दोष (२) अतिद्रव्यकीत दोष या 'अचितक्रीत दोष' और (३) भावकीत दोष है । (देखो शब्द 'अङ्गारदोष' और 'अहारदोष' ) ॥ अश्चितजल - जो जल छान कर इतना
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गर्म (उष्ण ) कर लिया गया हो कि उस में चावल गल जाय या जिस में लवंग, इलायची आदि कोई तिक्त अथवा कषैली वस्तु मिला दी गई हो ।
'
देखो शब्द
"अचितयोनि
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[-दाम पास न होने के
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