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वृहत् जैन शब्दार्णव
अंगुष्टप्रदेशन
अंगुष्ठप्रदेशन)
अङ्गुष्ठप्रश्न अंगुष्ठप्रसेन ( अंगुष्पदेशन या अंगुठ प्रश्न ) - अंगुष्ट अर्थात् अँगूठे में किसी देवता का आह्वानन करके या आ स्मिक विद्युत्तरंगें उत्पन्न करके अँगूठे से ही प्रश्नों का उत्तर देने की एक विद्या । यह विद्या ७०० अल्प विद्याओं में से सर्व से पहिली है । इस विद्या का स्वरूप, सामर्थ, और प्राप्त करने की विधि - मंत्र, तंत्र, पूजा, विधानादि -- इत्यादि का सविस्तार पूर्ण निरूपण 'विद्यानुवाद' नामक दश पूर्व में है जहां शेष अल्प विद्याओं तथा 'रोहिणी' आदि ५०० महा विद्याओं का और अष्ट महानिमित्तज्ञान का भी पूर्ण वर्णन है । 'प्रश्नव्याकरण' नामक १०व अङ्ग में भी इस विद्या का निरूपण है ॥
आगे देखो शब्द 'अंगुप्रसेन'
[ देखो शब्द 'अंगमविष्ट तज्ञान' में (१२) दृष्टिवादांग का भेद (४) पूर्वगत और उस का विभाग १० विद्यानुवादपूर्व और (१०) प्रश्नव्याकरणांग ] अंगुष्टिक-आगे देखो शब्द 'अंगोस्थित' ॥ अरियक - भरतक्षेत्र के एक पर्वत का
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प्राबीन नाम ॥
भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय के समय मार्ग में जो अनेक नदी, पर्वत, बम, नगरादि पड़े उनमें से एक पर्वत यह भी था ॥ अङ्गोपाङ्ग - (1) शरीर के अङ्ग और उपाङ्ग ।
शरीर के अवयव या भाग दो पग दो हाथ, नितम्ब (कमर के नीचे का भाग, चूतड़ ), पीठ, हृदय, और मस्तक या शिर, यह आठ 'अंग' हैं । इन अंगों के जो मुख, नाक,
अंघ्रिक्षालन
कान, आँख, गर्दन, पहुँचा, हथेली, अँगुली, नाभि, जंघा, घटना, पड़ी आदि अनेक अङ्ग या अवयव हैं उन्हें 'उपाङ्ग' कहते हैं ॥
नोट--नितम्बों सहित दो पग दो हाथ, शिर और धड़ ( शरीर का मध्यभाग ), इस -प्रकार अङ्गों की गणना ६ भी मानी जाती है । आठों या छहीं अङ्गों से नमस्कार करने को
'अष्टाङ्गनमस्कार' या 'साष्टाङ्गनमस्कार' या 'षडाङ्गनमस्कार' बोलते हैं ॥
(२) नामकर्म की ४२ उत्तर प्रकृतियों में से जो १४ पिंड प्रकृतियां ( भेदयुक्त प्रकृ तियां ) हैं उन में से एक का नाम 'अङ्गोपाङ्ग' है जिस के उदय से शरीर के अनेक अवयवों की रचना होती है । इस पिंडप्रकृति के शरीरभेद अपेक्षा तीन भेद (१) औदारिक शरीराङ्गोपांग (२) वैकथिक श
रांगोपांग (३) आहारक शरीरांगोपांग हैं। शेष दो प्रकार के शरीरों अर्थात् तैजसशरीर और कार्माण शरीर के अङ्गोपांग नहीं होते [ देवो शब्द 'अघातियाकर्म' मैं (२) नामकर्म ] ॥
मङ्गोस्थित- -एक तीर्थङ्कर का नाम ॥
जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु की उत्तरदिशा में स्थित ऐरावतक्षेत्र की गत चौबीसी के यह ९ वें तीर्थङ्कर हैं । ( आगे देखो शब्द 'अढाईद्वीपपाठ' के नोट ४ का कोष्ठ ३ ) ॥ अंधिदालन - 'अघि' या 'अघि' शब्द का अर्थ है 'चरण', और 'क्षालन' का अर्थ है 'प्रक्षालन' या 'घोना', अतः नवधाभक्ति ( नव प्रकार की भक्ति ) में से एक प्रकार की भक्ति 'अक्षालन' है जो किसी मुनि को आहार देने के समय उदार हृदय दातार प्रकट करता है अर्थात् 'अक्षिा
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