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बृहत् जैन शब्दार्णव स्थल-यान-निर्माण तथा मेरु कुलाचल या | सार और उल के पदों की संख्या पाल समभूमि आदि पर शीघ्रगमन, शीघ्र उद. भाषा के ७४ आर्ग-उन्दों ( गन्दी ) न्तप्रेषण(संवाद, समाचार या सूचना आदि और तोच अनुमान है। भेजना ) आदि के उपाय, तथा मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादि का सविस्तार निरूपण है ॥ में बारहें अंग को ५
३. मायागता-इसमें मायारूप इन्द्र- से पहिले ४ मा और कि जाल विद्या आदि अनेक प्रकार की में से प्रत्येक के फवार का सार पद आश्चर्योत्पादक विक्रिया अदि कर | की संस्था लक्षित ११७ माथा दो । दिखाने के अनेक उपाय, मन्त्र, यंत्र, तप
वर्णित है। श्चरणादि का वर्णन है ॥ .
___ (३) धूलिकामतकप्रशति:-- . ४. आकाशगता-इसमें अनेक प्रकार में बारह अबका पाना किया। के आकाश-यान--वायुयान या धिमान-- के पांचों विभागों और अंगवाला १४ प्रकीबनाने, बिना यान आकाश में गमना कों में से पाक के पाथन का सार उनको गमन करने, आकाश मार्ग से समाचारादि पदो या अक्षरों की संख्या सहित ५३ गाथा प्रेषण करने आदि के अनेक उपाय, मन्त्र,
छन्दों में वर्णित है॥ तंत्र, तपश्चरणादि का सविस्तार निक उपयुक्त छन्द संख्या के अतिरिक।
গালে হাৰ ন শোগাজী | ५. रूदगता--इस में अनेक प्रकार के ভল ই স লা নেতি কি তে ভাই | पशु पक्षी आदि के रूप में अपना रूप पल- के नाम भी यथास्थान गिनाये हैं तथा ! टने के उपाय, मंत्र,तंत्र,तपश्चरणादि तथा छरे पूर्व 'सत्यमवाद' और सातधे पूर्व अनेक प्रकार के चित्र खींचना या मृत्तिका, 'आत्मप्रवाद'की और सामायिक प्रकीर्णक पाषाण, काष्ठ आदि की मूर्ति बनाना, की यथा आयक छुछ व्याख्या भी गद्य उन के शुभाशुभ लक्षणादि बताना और प्राकृत में की गई है। धातुवाद, रसवाद, आदि रसायन आदि नोट १.--श्री विजय शिष्य का निरूपण है।
| श्री 'शुभचनाचार्य' विक्रम सं० १६०८ में .. नोट-देखो शब्द "अक्षरात्मक श्रुत- विद्यमान थे। विधिधिनियाधर' और 'पट । जान'' और "अंगवास श्रु तशान" ॥ भागाकधिया ' हा पी उपाधियां। अङ्गप्रज्ञाप्त-श्री 'शुभचन्द्र' आचार्य कृत यह आचार्य सुभाषितरमामली और जोरअनेक ग्रन्थों में से एक प्राकृत अन्य का
भारचरित्र, तत्वनिर्धाय, किस्तामणि (प्राकृतनाम ॥
व्याकरण ) आदि अनेक संरत प्रयो यह ग्रन्थ निम्न लिखित तीन भागों में | रचयिता और राहुइ. स्वामिका कियाविभाजित है:--
सुभेक्षा, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका आदि अनेक ____ (१) द्वादशाङ्गप्रज्ञप्ति-इस भाग में ग्रन्थों के संस्कृत टोकायार थे। द्वादश अङ्गों में से प्रत्येक के कथन का श्री 'शानार्णव' (शोगाजीप ) ग्रन्थ के
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