________________
अग्निकायिकजीव अग्निकायिक जीव-६ काय के जीवों
नोट २ - गति नामकर्म के उदय से जीव की मारकादि पर्याय को 'गति' कहते हैं । नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, और देवगति, यह चार गति हैं, जिन में से तिर्यच गति के जीवों के अतिरिक्त शेष तीनों गतियों के जीव सर्व ही 'त्रस जीव' हैं और तिर्यच गति के जीव त्रस और स्थावर दौनों प्रकार के हैं ॥
|
में से एक काय का जीवः ४ गति में से तिर्यञ्च गति का एक भेद: ५ स्थावर जीवों मैं से एक; यह सम्मूर्च्छन जन्मी, नपुंसक लिंगी, एक-इन्द्रिय अर्थात् केवल स्पर्शन इन्द्रिय धारक स्थावर- कायिक वह जीव है जिसका शरीर अग्निरूप हो। इस को तेजकायिक जीव भी कहते हैं । अग्निकायिक जीवों का शरीर निगोदिया जीवों से अप्रतिष्ठित होता है अर्थात् इस में निगोदिया जीव नहीं होते। इस प्रकार के जीवों के शरीर का आकर सुइयों के समूह की समान सूक्ष्म आकार का होता है जो नेत्र इन्द्रिय से दिखाई नहीं पड़ता । इस की उत्कृष्ट आयु ३ दिन की होती है। ८४ लक्ष योनि भेदों में से अग्निकायिक जीवों के ७ लक्ष भेद हैं ( देखो शब्द " योनि " ) । जीव समास के ५७ अथवा ६८ भेदों में से इस के ६ भेद हैं - ( १ ) सूक्ष्मपर्याप्त ( २ ) सूक्ष्मनिवृत्यपर्याप्त (३) सूक्ष्मलभ्य पर्याप्त ( ४ ) स्थूलपर्याप्त (५) स्थूल निवृत्यपर्याप्त ( ६ ) स्थूल लध्यपर्याप्त (देखो शब्द "जीव समास" ); १६७॥ लक्ष कोटि "कुल" के भेदों में इस काय के जीवों के ३ लक्ष कोटि ( ३०००००, ) भेद हैं। (देखो शब्द “कुल” ) ( गो० जी० गा० ७३-८०, า
०००००००
( ५७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
Jain Education International
८६, ११३, ११६, १६६, २००,०० नोट १ - जाति नाम कर्म के अविनाभावी स और स्थाबर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की "पर्याय" को 'काय' कहते हैं । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, यह पांच
अग्निकायिकजीब
प्रकार के जीव एकेन्द्रिय जीव हैं अर्थात् यह केवल एक स्पर्शन-इन्द्रिय रखने वाले जीव हैं । यही स्थावर-जीव या स्थावर -कायिकजीव कहलाते हैं। शेष द्विन्द्रिय आदि जीव “बस" या प्रसकायिक जीव कहलाते हैं । पांच स्थावरकायिक और एक त्रसकायिक यह छह " षटकायिक" जीव हैं।
।
नोट ३ - सर्व ही संसारी जीवों का जन्म ( १ ) गर्भज (जेलज, अंडज, पोतज ) ( २ ) उपपादज और ( ३ ) सम्मूर्छन ( स्वेदज, उद्भिज आदि ), इन तीन प्रकार का होता है जिन में से सम्मूर्च्छन क्षम्मी वह जीव कहलाते हैं जिन के शरीर की उत्पत्ति किसी बाह्य निमित्त के संयोग से हो उस शरीर के योग्य पुद्गल-स्कन्धोंके एकत्रितहो जानेसे होती है ॥
नोट ४- अङ्गोपांग-नामकर्म के उदय से उत्पन्न शरीर के आकर या चिन्ह विशेष को लिङ्ग या वेद कहते हैं । इसके पुरुष लिङ्ग स्त्रलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग यह तीन भेद हैं जिनमें से पूर्व के दो लिङ्गों से रहित जीव को f 'नपुंसक लिंगी' जीव कहते हैं ॥
नोट ५-जो अपने अपने विषयों का अनुभव करने में इन्द्र की समान स्वतन्त्र हों उन्हें "इन्द्रिय" कहते हैं । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, यह पांच वाह्य द्रव्यइन्द्रियां हैं इनही को "ज्ञानेन्द्रिय" भी कहते
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org