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| अगुरुलघुत्वप्रतिजीवीगुण
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्गलदेव
नहीं बदलता उसे "अगुरुलघुत्व गुण" | मिथ्यात्व" ) ॥ कहते हैं ।
अगृहीतार्थ-वह मुनि जो एकाविहारी न नोट-षट द्रव्यों के ६ सामान्य गुण यह हैं:-(१) अस्तित्व (२) वस्तुत्व (३)
__ हो किन्तु दूसरे मुनियों के साथही विचरै ।। द्रव्यत्व (४) प्रमेयत्व (५) अगुरुलघुत्व | अग्गल (अर्गल)-(१) आगल, सांकल, (६) प्रदेशत्व ॥
हुड़का, बैंडा या चटकनी जो किवाड़ बन्द अगुरुलघुत्वप्रतिजीवी गुण-जीव या| करने में लगाई जाती है ॥
(२) ८८ ग्रहों में से एक ग्रह का नाम अजीव के अनेक 'प्रतिजीवी' गुणों में से | वह गण जिस से उसके भारीपन व हल
(अ० मा.) के पनके अभाव का अथवा उस की उच्चता | अगलदेव ( अर्गलदेव )-(१) कर्णाटक व नीचता के अभाव का बोध हो॥ देशवासी एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य-इनका
नोट १-द्रव्य के अनुजीवी और प्रति-| जन्म स्थान “इङ्गलेवर ग्राम" और समय जीवी, यह दो प्रकार के गुण होते हैं। भाव वीर नि० सं० १६३४, वि. सं० ११४६ स्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं, जैसे और ईस्वी सन् १०८६ है। पिता का नाम सम्यक्त्व. सुख, चेतना, स्पर्श, रस, गन्ध 'शान्तीश', माता का नाम 'पोचाम्बिका' आदि और अभाव स्वरूप गुणों को प्रतिजीवी और गुरु का नाम 'श्रुतकीर्तित्रैविद्य देव' गुण कहते हैं, जैसे नास्तित्व, अमूर्त्तत्व, अचेत- था। यह अपनी गृहस्थावस्था में किसी नत्व, अगुरुलघुत्व आदि ।
राजदर्बार के प्रसिद्ध कवि थे। इनके रचे अगृह-गृहहीन, घररहित; घर त्यागी
ग्रन्थों मेंसे आजकल केवल एक कर्णाटकीय
भाषा का 'चन्द्रप्रभपुराण' ही मिलता है वानप्रस्थ; गृहत्यागी मुनि (पीछे देखो
जिसकी रचना शक सं० २०११ (वि.सं. शब्द "अकच्छ", पृ०४)॥
११४६ ) में हुई थी । इस ग्रन्थ की भाषा प्रगृहीत (अग्रहीत)-न ग्रहण किया हुआ ॥ बहुत ही प्रौढ़, प्रवीणतायुक्त और संस्कृतप्रगृहीत मिथ्यात्व-न ग्रहण किया हुआ
पदवहुल है। इसमें १६ आश्वास अर्थात्
अध्याय है । जैनजनमनोहरचरित, कवि मिथ्यात्व; वह असत्य भाव और असत्य
कुलकलभत्रातयूथाधिनाथ,कान्यकरणधार, श्रद्धान जो किसी मिथ्या शास्त्र या मिथ्या
भारतीबालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, श्रद्धानी गुरु आदि के उपदेशादि से न ग्रहण
जिमसमयसरस्सारकेलमराल, और सुल. किया गया हो किन्तु आत्मा में स्वयम् उस
लितकवितानर्तकीनृत्यरङ्ग आदि अनेक की मलीनता के कारण पूर्वोपार्जित"मिथ्या
इनके विरद अर्थात् प्रशंसा वाचक नाम त्व कर्म' के उदय से अनादि काल से
या पदवी हैं जिनसे इन की विद्वता और सन्तान दर सन्तान प्रवाहरूप चला आया हो। इसी को "निसर्गज मिथ्यात्व"
योग्यता का ठीक पता लग जाता है।
आश्चण्णदेवकवि, अण्डय्य, कमलभव, भी कहते हैं। यह मिथ्यात्व ३ प्रकार के
बाहुबलि और पार्श्व आदि अनेक बड़े बड़े मिथ्यात्वों-अगृहीत, गृहीत, सांशयिकमें से एक है ॥
कवियों ने अपने अपने ग्रन्थों में इनकी
बड़ी प्रशंसा की है । यह आचार्य मलसंघ, गृहीतमिथ्यादृष्टी-अगृहीत मिथ्यात्व- देशीयगण, पुस्तकगच्छ, और कुन्दकुन्द प्रसित जीव । (ऊपर देखोशब्द "अगृहीत- आम्नाय में हुए हैं।
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