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वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्रदत्त
अनिवृत्तिक्रिया
मार्ग) की सिद्धि व वृद्धि के लिये उत्तम
शरीर आदि की प्राप्ति की आकाँक्षा ॥
इन अग्रदेवियों के अतिरिक्त हर इन्द्र कुल, सुसंगत, निर्मल बुद्धि, आरोग्य | की बहुत २ सो परिवार देवियां हैं जिनके दो भेद हैं- ( १ ) बल्लभिका देवियां (२) सामान्य देवियां ॥ इन देवाङ्गनाओं की आयु जघन्य १ पल्योयम वर्ष से कुछ अधिक और उत्कृष्ट ५५ पल्योयम वर्ष की है ॥ अगूनाथ ( अद्वितीयनाथ, अपरनाथ ) -- धातकीद्वीप की पूर्व दिशा में विजयमेरु के दक्षिण भरतक्षेत्र के आर्यखंड में अनागत उत्सर्पिणी काल में होने वाली चौबीसी के आठवें तीर्थंकर का नाम । ( आगे देखो शब्द " अढाईद्वीपपाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३ ) ॥
अगूनिवृत्ति-आगे के लिये छूट जाना, विश्राम, बन्धनमुक्ति, सर्वोच्च सुख प्राप्ति, निर्वाण प्राप्ति ॥
(३) भोगार्थ अप्रशस्त = अनेक प्रकार के भोगोपभोग प्राप्ति के लिये इस जन्म या आगामी जन्मों में धन सम्पदादि ष स्वर्गादि विभव प्राप्ति की कामना ॥
( ४ ) मानार्थ अप्रशस्त = इसजन्म या परजन्म में मान कषाय पोषणार्थ दूसरों को नीचा दिखाने आदि अशुभ कार्यों के लिये ऊँचे २ अधिकार व बलादि पाने की इच्छा ॥
( ५ ) घातकत्व अप्रशस्त = इस जन्म
या परजन्म में क्रोधवश द्वेश भाव से किसी अन्य प्राणी को कष्ट पहुँचाने वा मार डालने की दुर्वासना ॥
नोट - अग्रचित्ता या निदान के मूल भेद तो दो ही हैं - प्रशस्त और अप्रशस्त । इन दो में से प्रशस्त के दो और अप्रशस्तके तीन, एवं सर्व पांच उपर्युक्त भेद हैं ॥
अग्रदत्त - पीछे देखो शब्द "अग्निदत्त" २ का नोट, (अ० मा० "अग्गदत्त " ) ॥ अग्रदेवी- -पट्ट देवी, महादेवी, इन्द्रानी ॥ नोट - १६ स्वर्गों के १२ इन्द्रों में से हरेक की आठ आठ अग्रदेवी हैं इन में से ६ दक्षणेंद्रों में से हर एक की आठ अग्रदेवियों के नाम (१) शची ( २ ) पद्मा (३) शिवा (४). श्यामा (५) कालिन्दी (६)सुलसा (७) अज्जुका (८) भानुरिति हैं | और ६ उत्तरेन्द्रों में से हर एक की आठ = अग्रदेवियों के नाम (१) श्रीमती (२) रामा (३) सुसीमा (४) प्रभावती (५) जयसेना (६) सुषेणा (७) वसुमित्रा (८) वसुन्धरा हैं ॥
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अनिवृत्ति क्रिया - गर्भाधानादि ५३ गर्भान्वय क्रियाओं तथा अवतारादि ४८ क्रियाओं में से अन्तिम क्रिया जो 'कैवल्यज्ञान' प्राप्ति के पश्चात् चौधवें गुणस्थान में पहुँच कर शेष अघातिया कर्म निर्जरार्थ ( कर्म क्षयार्थ ) की जाती है और जिस के अनन्तरही नियमसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है | यह क्रिया आत्मस्वभावरूप है जो सर्व कर्मों के क्षय से आत्मा में स्वयम् प्रकट होती है । अतः इस क्रिया सम्बन्धी मंत्रादि का कोई विशेष विधान नहीं है ॥
नोट १ - संसार भ्रमण के दुखों से छूटने और शीघ्र अनादि कर्म बंध तोड़कर मुक्तिपद प्राप्त कर लेने का सरल मार्ग प्राप्त करनेके लिये निम्न लिखित गर्भान्वय नामक ५३ क्रियाएं या संस्कार हैं जिन्हें भले प्रकार साधन करने से इस लोक
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