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अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म गुणस्थान वाला अविरत सम्यग्दृष्टी मनुष्यही, सन्तान क्रम से उच्च या नीच आचरण ' जो सम्यक्त प्राप्त करने से पहिले नरकगतिबंध परिपाटीरूप चला आया हो उसे “गोत्र" कर चुकने से नरक में जाने के लिये सन्मुख | कहते हैं । किसी ऐसी उच्च या नाच हो, बांधता है। और शेष ६४ प्रकृतियों में से आचरण वाली पर्याय में प्राप्त कराने पैकियिकषट्क (अर्थात् देवगति, देवगत्यानु- वाली जो कर्मप्रकृति है उसे "गोत्रकर्म" पूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैकूियिक- कहते हैं। इस कर्मप्रकृति का स्वभाव शरीर, वैकियिकआंगोपांग ), विकलत्रय कुंभकार (कुम्हार ) की समान है जो (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ) सूक्ष्म, अप- बढ़िया घटिया सर्व प्रकार के बासन र्याप्त, साधारण, इन १२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बनाता है। इस कर्म प्रकृति के (१) उरचस्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टी मनुष्य और तिर्यश्च गोत्र और (२) नीचगोत्र, यह दो भेद हैं । ही करते हैं । और औदारिकशरीर, औदा
. (गो.. क. १३) ॥ रिकआंगोपांग, तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानु
इस कर्म की जघन्य व उत्कृष्टस्थिति पूर्वी, उद्योत, और असंप्राप्ता पाटिक संहनन,
|' 'नामकर्म' की समान है अर्थात् जघन्यइन छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध
स्थिति ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट २० कोड़ामिथ्यादृष्टीदेव और नारकी ही करते हैं।
कोड़ी सागरोपमकाल प्रमाण है। यह एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर, इन तीन
जधन्य स्थिति उच्चगोत्र की और उत्कृष्ट ! प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टी
स्थिति नीचगोत्र ही की बँधती है ॥ देव ही करते हैं। शेष ४३ प्रकृतियों की उ
विशेष-नीच गोत्रकर्म प्रकृति की त्कृष्ट स्थिति यथासम्भव उत्कृष्टसंक्लेश परि
उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोड़ी सागरोपमणामी तथा ईपमध्यम ( मन्द और मध्यम )
काल और उश्चगोत्र की १० कोडाकोड़ी संक्लेशपरिणामी चारों ही गतियों के जीव
सागरोपमकाल केवल मिथ्यादृष्टीजीव ही घांधते हैं।
चारों गतियों में अजघन्य (उत्कृष्ट, मभ्यम्,
ईषत) संकेश परिणामों से बांधते हैं। तीर्थकरत्व, आहारकशरीर, आहारक
उच्चमोत्र की = मुहूर्त की जघन्य स्थिति आंगोपांग, इन तीन नामकर्म की प्रकृतियों
को १.वें सूक्ष्मसाम्प्राय गुणस्थान वाला की जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागर है जिसे ८वे अपूर्वकरण गुणस्थान वाला
मनुष्य ही बांधता है। क्षपकणी चढ़ता हुआ मनुष्य ही बांधता
___ (५) वेदनीय कर्म-इन्द्रियों को अपने है। वैकियिकषटक ( देवगति, देवगत्यानुपूर्वी,
स्पर्शादि विषयों का सुख दुःख रूप अनुनरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैकूियिकशरीर,
भव करने को 'वेदनीय' कहते हैं। ऐसे वैक्रियिकआंगोपांग ) की जघन्यस्थिति को
अनुभव को कराने वाली कर्मप्रकृति को असंशी पञ्चेन्द्रिय जीव यांधते हैं ।
'वेदनीयफर्म' कहते हैं। इस कर्म प्रकृति
का स्वभाव मधुलपेटी असिधारा (तल(३) मोत्रकर्म-लोकपूजित व लोक- | वार की धार) की समान है जिने मधुनिन्दित कुल को अथवा जिस कुल में स्थल से चखते समय प्रथम कुछ मुण
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